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________________ 156 साध्वी डॉ. प्रतिभा अथवा किसी आकस्मिक जीवन के संकट के क्षणों में अनशनपूर्वक देह से ममत्व का त्याग करके जीवन-मरण की समस्त सहायक सामग्री का परित्याग करना ही समाधिमरण है।' जैन-परम्परा में समाधिमरण का स्थान - जैनधर्म में वर्णित योग-साधना में समाधिमरण की साधना सबसे कठिन है, किन्तु जीवन की अन्तिम वेला में साधनाशील आत्मा को चिरशान्ति प्रदान करने का यह एक उत्तम साधन है। जैन-संस्कृति में इसे व्रतराज के नाम से भी जाना जाता है। मरणसमाहि प्रकीर्णक में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि सामान्य परिस्थिति में व्यक्ति अपने शरीर की रक्षा आहारादि की सहायता से करता है, लेकिन जब उसे यह मालूम हो जाता है कि अब यह शरीर आहार आदि लेने से भी ठहरने वाला नहीं है अर्थात् विनष्ट हो जाने वाला है, तब वह तप आदि की सहायता से अपनी कषायों को क्षीण करते हुए शरीरत्याग की दिशा में उद्यत होता है। वस्तुतः, उसके शरीर-त्याग का यह प्रयत्न ही समाधिमरण कहलाता है।' पण्डित आशाधरजी के अनुसार स्वस्थ शरीर भोजन आदि द्वारा पोषण करने योग्य है, कमजोर तथा रोगग्रस्त शरीर औषधियाँ तथा अन्य विधियों द्वारा सेवा करने योग्य है, लेकिन जब शरीर का रोग निरन्तर बढ़ता ही जाए और उसका ठीक होना सम्भव नही हो, तो व्यक्ति को ग्रहण करके शरीर का त्याग करना चाहिए। आगे वे सागारधर्मामत में लिखते हैं कि इस संसार में जीव ने अनन्त बार जन्म लिया और अनन्त बार मरण को भी भोगा है, लेकिन जीव ने कभी भी समाधि सहित पुण्यमरण नहीं किया। जो जीव समाधि सहित पुण्यमरण प्राप्त करता है, वह निश्चय ही इस मायारूपी संसार के बन्धन को सर्वदा के लिए तोड़ देता है। मोहग्रस्त व्यक्ति बार-बार जन्म-मरण करता है। इससे उसे मुक्ति प्राप्ति नहीं होती। समाधिमरण के द्वारा व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है, अतः इसी कारण समाधिमरण करने वाला व्यक्ति संसार के बन्धन को सर्वदा के लिए तोड़ देता है। __ भगवती-आराधना के अनुसार समाधिमरण का व्रत लेनेवाला व्यक्ति अपना जीवन सफल करने के साथ-साथ अन्य जीवों का भी जीवन सफल करने में सहायक होता है, क्योंकि क्षपक (समाधिमरण करने वाला व्यक्ति) की सेवा-शुश्रुषा करने वाले व्यक्ति को भी सपाधिमरण का फल कुछ अंशों में प्राप्त हो जाता है, जिससे वह भी अपना जीवन सफल कर सकता है। भावार्थ यह है कि जो व्यक्ति समाधिमरण करने वाले का दर्शन, वन्दना आदि करते हैं, वे अपने सभी पापों को 'मरूरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ. 264 'मरणसमाहीपइण्णय (दस पयन्ना) 1, गाथा 37-39, पृ. 98 'कायः स्वस्थोऽनुबर्त्यः स्यत प्रतिकार्यश्च रोगितः। उपकारं विपर्यस्यंस्त्याज्यः सद्धिः खलो यथा।। धर्मामृत (सागार) 8/6 *धर्मामृत (सागार) 8/27, 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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