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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 155 का त्याग कर देना चाहिए।' पुनः, इसी में कहा गया है कि अगर देह ठहरने योग्य हो, तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह नष्ट हो रही हो, तो किसी तरह का प्रमाद भी नहीं करना चाहिए। तत्त्वार्थवार्त्तिक में कहा गया है कि मरण उत्तरपर्याय की प्राप्ति के पूर्व पर्याय का नाश है। मृत्यु के समय कषायों एवं विषय-वासनाओं की न्यूनाधिकता के अनुसार आत्म-परिणामों पर अच्छा या बरा प्रभाव पड़ता है. अत: अपने अन्त समय को सधारने के लिए या अच्छा बनाने के लिए जीवन के अन्तिम क्षण में समाधिमरण लिया जाता है। समाधिमरण द्वारा अनन्त संसार की कारणभूत कषायों के आवेगों का उपशमन हो जाता है, कषाय क्षीण भी हो जाती है, जिसके कारण जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जाती है। मृत्यु अवश्यम्भावी है, इससे बच पाना अति दुर्लभ है, अत: तप, संयम, समाधि आदि के द्वारा जीवन को उन्नत करना चाहिए। तप, जप करते हुए शान्तिपूर्वक जो मृत्यु प्राप्त होती है, वह समाधिमरण ही है। इस सम्बन्ध में जैन आगम साहित्य में अनेक उदाहरण मिलते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लेख है कि महर्षि मुगापुत्र ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप आदि निर्मल भावनाओं के द्वारा श्रमण-धर्म का पालन करते हुए इस अनुत्तर-सिद्धि को प्राप्त किया था। डॉ. मोहनलाल मेहता के अनुसार जीवन के अन्तिम क्षणों में आहारादि का त्याग करके समाधिपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करना समाधिमरण कहलाता है। वे पुनः कहते हैं कि जब व्यक्ति का शरीर इतना कमजोर और अशक्त हो जाए कि वह संयम की साधना. अर्थात आचार-नियमों का सम्यकपेण परिपालन करने में असमर्थ हो जाए, तो ऐसी स्थिति में बिना किसी राग-द्वेष के शान्त एवं प्रसन्न मन से देहासक्ति से रहित होकर आने वाली मृत्यु का वरण कर लेना चाहिए।' इस तरह मृत्यु का वरण करना ही समाधिमरण है। वृद्धावस्था या रुग्णता के अतिरिक्त भी जब अचानक ही मत्य अपरिहार्य बन गई हो, तो निर्विकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी समाधिमरण कहलाता है। डॉ. दरबारीलाल कोठिया समाधिमरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- संलेखना या समाधिमरण का अर्थ है- सम्यक् प्रकार से काय (शरीर) और कषाय को कृश करना। श्री सुरेश मुनि ने भी समाधिमरण की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लिखा है मरण को निकट आया देखकर, "तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रदीपमिव देहम। स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबन्धु करोतु विधिमन्त्यम्। - उपासकाध्ययन, 891 'तत्वार्थवार्त्तिक, 7/22 .. 'एव नाणेण चरणेण, दसणेण तवेणय। भवणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।। उत्तराध्ययनसूत्र 19/94 4 बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। मासिएण उ भत्तेण सिद्धि पत्तो अणुत्तरं-उत्तराध्ययनसूत्र - 19/95 'जैन-आचार - डॉ. मोहनलाल मेहता- पृ. 120 समाधिमरणोत्साहदीपक की प्रस्तावना - लेखक डॉ. दरबारीलाल कोठिया, पृ. 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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