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साध्वी डॉ. प्रतिभा
अध्याय 5
समाधिमरण की अन्य धार्मिक-परम्पराओं से
तुलनात्मक अध्ययन
(अ) जैनधर्म में समाधिमरण -
जैन परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में समाधिमरण एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जिसे संलेखना, संथारा आदि नामों से जाना जाता है। जैनधर्म में श्रमण-साधकों एवं गृहस्थ-उपासकों दोनों के लिए समाधिमरण ग्रहण करने के निर्देश मिलते हैं। जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने के अनेकों सन्दर्भ हैं। अन्तकृद्दशांग' एवं अनुत्तरोपपातिक' में ऐसे श्रमण-साधकों और उपासकदशांग में ऐसे गृहस्थों की जीवन-गाथाएँ मिलती हैं, जिन्होंने जीवन के अन्तिम समय में समाधिमरण ग्रहण किया था।
उत्तराध्ययन में समाधिमरण को पण्डितमरण अथवा सकाममरण (सार्थकमरण) भी कहा गया है। पण्डितमरण ज्ञानीजनों का मरण है। ज्ञानी पुरुष मृत्यु के उपस्थित होने पर अनासक्त भाव से उसका स्वागत करते हैं। वे उससे भयभीत नहीं होते हैं। अनासक्त-भाव से मृत्यु वरण करने की कला को ही समाधिमरण कहा जाता है।
__महाप्रत्याख्यान में समाधिमरण पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि समाधिमरण करने वाले की आत्मा बोल उठती है कि मैं आहार उपधि, देह आदि सबका मन-वचन-काय से त्याग कर दँ। वह जीवन और मरण दोनों से ऊपर उठ जाता है. उपासकाध्ययन के अनसार व्यक्ति को जब यह विदित हो जाए कि उसका शरीर नष्ट होने वाला है, तो उसे समभावपूर्वक शरीर के प्रति ममत्व
अन्तकृतदशा के प्रत्येक वर्ग के प्रत्येक अध्ययन में समाधिमरण का उल्लेख है
पपातिकदशा में भी सभी साधको के द्वारा समाधिमरण ग्रहण करने का उल्लेख है 'उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन - 5 महाप्रत्याख्यान - उवही सरीरगं चेव आहारं च चउब्विहं महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णकम् - (दस पयण्णा) 9
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