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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
प्रकार होनी चाहिए-इसका निर्देश करते हुए कहा गया है कि प्रथम चार वर्षों में विगयरहित, अर्थात् धी, तेल, दूध, दही, मिठाई आदि से रहित रुक्ष भोजन करना चाहिए। उसक पश्चात् दो वर्ष तक एकान्तर तप करना चाहिए, अर्थात् एक दिन उपवास एक दिन भोजन करना चाहिए। फिर चार वर्षों में उपवास, दो दिन के उपवास, तीन दिन के उपवास आदि विभिन्न प्रकृष्ट तपों को करते रहना
अगले दो वर्षों में एकान्तर तप के पारणों में विगयरहित भोजन करना चाहिए। इस प्रकार दस वर्ष पर्यन्त कठोर तप साधना करनी चाहिए। फिर ग्यारहवें वर्ष के अन्तरिम छ: मास और बारहवें वर्ष के प्रथम छ: मास में निरन्तर आयम्बिल करके अन्त के छ: मास में भक्त-परिज्ञा के माध्यम से आहार आदि में क्रमशः धीरे-धीरे कमी करना चाहिए। इसी प्रसंग में यह भी बताया गया है कि शरीर को कृश किए बिना सहसा चतुर्विध आहार का त्याग कर लेने से शरीर में असमाधि उत्पन्न होती है और उसके परिणामस्वरूप आर्तध्यान उत्पन्न होता है, जबकि संलेखना का मुख्य लक्ष्य समाधि या शान्तिपूर्वक शरीर का त्याग होता है।
अतः शरीर संलेखना भी इस प्रकार से करना चाहिए, जिससे शरीर में असमाधि न हो और समभावपूर्वक देहत्याग सम्भव हो। इसी क्रम में आगे आभ्यन्तर संलेखना के लिए कषायों के कलुष त्याग और अध्यवसायों की शुद्धि के लिए आवश्यक कहा गया है, क्योंकि जब तक कषाय रूपी अग्नि शान्त नहीं होगी, तब तक संक्लेश के भाव समाप्त नहीं होते और संक्लेशयुक्त भाव जन्म-मरण की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं, अतः समाधिमरण की साधना में मिथ्यादुष्कृत्य रूपी जल से कषाय अग्नि को शान्त करना आवश्यक है। आहारत्याग के साथ-साथ कषायों का कशीकरण करें।
आराधना-पताका के ग्यारहवें द्रव्य दापना द्वार में यह निर्देश दिया गया है कि क्षपक के शरीर में समाधि बनी रहे। उस क्षपक के मनोभावों को जानकर उसी प्रकार साधक की समाधि बनी रहे. वैसा ही आहार दिया जाना चाहिए।
इसी प्रकार आराधना-पताका के समाधिपान विरेचन द्वार में यह बताया गया है कि निर्यामक यह समझे कि वह समाधिमरण ग्रहण करने वाले क्षपक को किस प्रकार से साता मिले, उसके मन में असमाधि के भाव न आ जाए, उस क्षपक साधक का पेट साफ है या नहीं- यह जानकर उदरमल के शोधन के लिए उसे समाधिपान, अर्थात् विरेचकद्रव्य भी पिलाया जाना चाहिए। शक्कर, त्रिफला, नागकेशर, तमालपत्र का दूध और शक्कर के साथ मिलाकर उसे थोड़ा सा गर्म करके पिलाया जाना चाहिए, जिससे क्षपक की पीड़ा शान्त हो जाए।
चत्तारि विचिताइं, विगइनिज्जूहियाइं चत्तारि। सवच्छरे य दुण्णि उ एगंतरियं च आयाम।। वही.. गाथा- 10 नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं। अण्णे वि य छम्मासे होइ विगिठें तवोकम्मं ।। वही,, गाथा- 11. देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहिं खिज्जमाणाहिं।
जायइ अट्टज्झाणं सरीरेणो चरिमकालम्मि|| वही.. गाथा- 14 'तम्हा हु कसायग्गिं पढम उप्पज्जमाणयं चेव।
इच्छा-मिच्छा दुक्कऽचंदणसलिलेण झंपिज्जा।। आराधनापताका, गाथा- 20 * आराधना-पताका -द्वार- 11 गाथा- 92 उयरमलसोहणट्ठा समाहिपाणं मणन्नमेसो वि। महरं पज्जेयत्वो मंदं च विरेयणं खवओ।। वही - गाथा- 100
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