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साध्वी डॉ. प्रतिमा
हुए यह कहा गया है कि उन्होंने साधकों को रात्रि-भोजन त्याग का निर्देश दिया है।' समाधिमरण-सम्बन्धी भगवती-आराधना में भी रात्रिभोजन-त्याग का छठवें व्रत के रूप में उल्लेख हुआ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में रात्रि भोजन का निषेध किया गया था। हमारे समालोच्य ग्रन्थ प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका में भी उसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए पांच महाव्रतों के पालन के साथ ही रात्रिभोजन-त्याग का निर्देश किया गया है। जैन-साधक के लिए रात्रिभोजन-त्याग की यह परम्परा प्राचीनकाल से लेकर आज तक जीवित है। समाधिमरण का साधक, जो अपनी साधना के अन्त में चारों प्रकार के आहारों के त्याग के लिए तत्पर बनता है, उसके लिए यह आवश्यक है कि वह पूर्व से ही रात्रि-भोजन का तो त्याग कर दे, क्योंकि रात्रिभोजन के त्याग के बिना वह दिवा-भोजन का भी त्याग नहीं कर पाएगा। यही कारण है कि आराधना-पताका में क्षपक को रात्रिभोजन-त्याग का व्रत ग्रहण करने के लिए कहा गया है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि समाधिमरण के साधक को सर्वप्रथम पांच महाव्रतों के साथ-साथ रात्रि भोजन-त्याग के छठवें व्रत का भी पालन करना चाहिए। जैन-परम्परा में हिंसा, असत्य, स्तेनकर्म, काम, भोग और परिग्रह के त्याग के साथ-साथ ही रात्रिभोजन के त्याग का निर्देश मिलता ही है और जो साधक अपनी अंतिम आराधना के लिए तत्पर है, उसके लिए इन पांच महाव्रतों के साथ-साथ रात्रिभोजन-त्याग भी अवश्य करणीय माना गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि समाधिमरण के साधक को कितनी ही विकट परिस्थिति क्यों न हो, रात्रि-भोजन से तो विरत रहना ही होता है। पंच महाव्रतों का ग्रहण और रात्रि भोजन का त्याग- यह समाधिमरण की साधना का प्रथम चरण है।
समाधिमरण हेतू क्रमिक आहार त्याग-प्रस्तुत समाधिमरण विषयक ग्रन्थ आराधना-पताका में समाधिमरण को ग्रहण करने वाले साधक को निर्देश दिया गया है कि वह किस प्रकार से क्रमिक रूप से आहार का त्याग करें। साथ ही इस ग्रन्थ में यह भी बताया गया हैकि किस-किस रूप में किस-किस प्रकार से समाधिमरण की साधना की जाती है।उसके पश्चात् आराधना-पताका मे आरधनाके दो रूपों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कषाय की संलेखना करना, अर्थात् अन्तर में निहीत कषायों को देखकर उनके निरसन का प्रयास करना आभ्यन्तर संलेखना है।
जबकि मृत्युपर्यन्त आहार आदिका त्याग करते हुए शरीर को कृश करना यह बाह्य संलखेना है। इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से संलेखन के तीन प्रकों की चर्चा हुई है। उत्कृष्ट संलेखना, अर्थात् शरीर और इन्द्रियों को कृश करने की प्रक्रिया 12 वर्ष की बताई गई है। मध्यम संलेखना 12 मास या एक वर्ष तथा जघन्य संलेखना 12 पक्ष, अर्थात् छ: माह की बताई गई है। मध्यम संलेखना 12 मास या एक वर्ष तथा जघन्य संलेखना 12 पक्ष, अर्थात् छ: मास की बताई गई है। इसके पश्चात् उत्कृष्ट संलेखना में तप आदि की विधि किस
अत्तहियट्ठयाए उसपज्जित्ता विहरामि।। 7 दशवैकालिकसूत्र - 4/17 से वारिया इत्थि-सराइभत्तं उवहाणवं दुक्खं-खयट्ठयाए। लोगं विदित्ताआरं पारं च सव्वं पभु वारिय सत्व-वारं।। 7 सूत्रकृतांग, 1/6/28 संलेहणा उ दुविहा अभिंतरिया 1 य बाहिरा 2 चेव।
अभिंतरा कसाएसु, बाहिरा होइ हु सरीरे।। आराधनापताका - गाथा -8 'तणुसंलेहा तिविहा उक्कोसा 1 मज्झिमा 2 जहण्णा 3 य।
बारस वासा, बारस मासा, पक्खा वि बारस उ 3|| आराधनापताका - गाथा-9
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