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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 149 शीलवन्त व्यक्ति के लिए संसार-सागर को पार करना अत्यन्त सरल होता है। शील के प्रभाव से अग्नि भी जल के समान शीतल हो जाती है, विष अमृत बन जाता है तथा देवता भी सेवक बनकर चरणों में झुक जाते हैं। जिसने अति उत्तम शीलधर्म की साधना कर ली है, उसे चिन्तामणि-रत्न की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है। उसके घर में लगा हुआ वृक्ष भी कल्पवृक्ष के समान हो जाता है, अर्थात् शील-साधना में रत व्यक्ति को ऋद्धि-सिद्धि तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। पांचवें परिग्रहविरति-महाव्रत में निर्यापकाचार्य अपरिग्रह का महत्व बताते हुए क्षपक के, कहते हैं-हे ! क्षपक, तू बाह्य एवं आभ्यन्तर-परिग्रह का त्याग कर। बाह्य-परिग्रह के दस भेद और आभ्यन्तर-परिग्रह के चौदह भेद हैं। परिग्रह के प्रति आसक्ति के कारण व्यक्ति कलह आदि दुष्कर्म करता है। जब परिग्रह-संज्ञा का उदय होता है, तब उस लालची जीव को संग्रह करने की बुद्धि होती है । उस संचय-वृत्ति के कारण वह जीवों की हत्या करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन-सेवन करता है और अपरिमित धन एकत्रित करता है। धन-संचय के मोह में पड़कर जीव अहंकार चुगली, कलह, कठोरता आदि अनेक दोषों का सेवन करता है। जैसे ईंधन से अग्नि और नदियों से समुद्र, तृप्त नहीं होता, वैसे ही जीव को यदि तीन लोकों की सम्पत्ति भी मिल जाए, तो भी उसकी तृप्ति नहीं होती है। यदि क्षपक निर्ग्रन्थ है, तो वह किसी भी तरह का परिग्रह न रखे, क्योंकि परिग्रह रखने वाला निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता। परिग्रह-बुद्धि से चित्त मलिन होता है तथा परिग्रह जन्म-मरण के चक्र को बढ़ाने वाला होता है, अतः संयमी व्यक्ति परिग्रह को वैर एवं कलह का कारण जानकर त्याग देते हैं। वे तो शरीर की ममता का भी त्याग कर देते हैं, अतः हे क्षपक ! तुम परिग्रह का परित्याग करो। अहिंसा आदि गहाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रि-भोजन का त्याग अनिवार्य है, अतः क्षपक को रात्रि भोजन का भी त्याग कर देना चाहिए। रात्रिभोजन-त्याग का उल्लेख दशवैकालिकसूत्र के चौथे अध्याय में छटवें व्रत के रूप में हुआ है। उसके पूर्व भी सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के छठवें अध्याय में महावीर की स्तुति करते ते नरयदुहं दुसहं सहति जह मणिरहो राया।। -वही - 621 'जलहि वि गोपयं विय अग्गी वि जलं विसं पि अमयसमं। सीलसहायाण सुरा वि किंकरा हुंति भुवणम्मि।। - वही - 622 2 चिन्तामणिणा किं तस्स? किं कप्पदुमाइवत्थूहिं। ख्तिसइयफलकरं सीलं जस्सऽत्थि साहीणं।। - वही - 624 मिच्छत्तादचउद्दसभेए अभिंतरे चयसु गंथे। खित्ताइ दसविहे वि य धीर ! तुम तिविहतिविहेणं ।। - वही - 625 * गंथनिमित्तं कुद्धो कलहं बोल करिज्ज वेरं वा। पहणिज्ज व मारिज्ज व पारिज्जिज्ज व तह परेणं।। - वही - 626 'अहवा होज्ज विणासो गंथस्स जल-ऽग्गि-मुसियाईहिं। नढे गंथे य पुणो तिव् पुरिसो लहइ दुक्खं ।। - वही - 627 'जह चक्कवट्टिरिद्धिं लद्धं पि चयंति केइ पुरिसा। को तुज्झ असंतेसु वि धणेसु तुच्छेसु पडिबंधो।। -आराधनापताका, 630 बहुवरे-कलहमूलं नाऊण परिग्गहं पुरिससीहा। ससरीरे ममत्तं चयंति चंपाउरिपहुव्व।। - वही - 631 इच्चेयाइं पंच महब्बयाई राईभोयण-वेरमण-छट्ठाई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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