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________________ 148 आश्रव का द्वार है।' चोर की दशा का विवेचन करते हुए कहा है कि चोर चोरी करके उसे कोई पकड़ ना ले, इस शंका से सदैव भयभीत रहता है, सुख से निद्रा भी नहीं ले सकता है। वह हरिण के समान सर्वत्र देखता हुआ भय से कांपता हुआ भागता फिरता है, यहाँ तक कि चूहे के खड़-खड़ से भी कांपने लगता है, वध, बन्धन आदि पीड़ाएं सहन करता है, परभव में शोक को प्राप्त करता है । वह इस जीवन में भी अपना आत्म सम्मान खोकर मृत्यु को प्राप्त करता है तथा परलोक में भी नरक में अपना स्थान बनाता है। इस प्रकार, संसार में अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है, अतः क्षपक को परधन - ग्रहण से या चोरी से उत्पन्न होने वाले दोषों को जानकर उनका त्याग करने के लिए तत्पर होना चाहिए। 1 चौथे, मैथुनविरमणव्रत के धारक क्षपक को निर्यापकाचार्य कहते हैं कि ब्रह्मचर्य - महाव्रत सब व्रतों में दुर्जेय, दुस्सह एवं श्रेष्ठ है, उसका सम्यक् प्रकार से पालन करना चाहिए । हे क्षपक ! स्त्री के प्रति आसक्ति से रहित होकर एवं नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति से सुविशुद्ध रहते हुए तू ब्रह्मचर्य की रक्षा करना । यह जीव ही ब्रह्म है, अतः परदेह के भोग की चिन्ता से रहित होकर जो साधु स्व में ही प्रवृत्ति करता है, उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है। आगे, ब्रह्मचर्य की नौ वाड (रक्षकतत्त्व) का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वसतिशुद्धि, सरागकथा - त्याग, सह एवं समान आसन का त्याग, स्त्री के अंगोपांगादि को रागपूर्वक देखने का त्याग, दीवार या परदे के पास खड़े होकर स्त्री के विकारी शब्दादि सुनने का त्याग, पूर्वक्रीड़ा की स्मृति का त्याग, प्रणीत भोजन का त्याग, अतिमात्रा में आहार का त्याग और विभूषा का त्याग - इस तरह ब्रह्मचर्य - पालन हेतू ये नौ गुप्तियाँ हैं । मुनि को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इनका पालन करना चाहिए। इस लोक व परलोक व उभय लोक में जो भी असहनीय दुःख हैं, विषयासक्त व्यक्ति उन सभी दुःखों को सहन करता है। विषय-भोगों में आसक्ति के कारण व्यक्ति इस लोक में दुःख, अपयश एवं अनर्थ को प्राप्त करता है तथा परलोक में भी दुर्गति को प्राप्त करता है। विषय-भोगों के सेवन से व्यक्ति अनन्त संसार को बढ़ा लेता है । मदनरेखा के रूप पर आसक्त मणिरथ राजा को मरकर नरक के दुःखों को सहन करना पड़ा।' I परदव्वहरणमेयं आसवदारं वयंति पावस्स । सोयरिय-वाह परदारिएहिं चारो हु पावयरो ।। 'बंध-वह-जायणाओ छायाघाओ य परिभवं सोयं । पावइ सयमवि चोरो मरणं सव्वस्सहरणं वा । । - आराधनापताका - 615 2 - Jain Education International वही - 613 3 'परलोयम्मि य चोरो करेइ नरयम्मि अप्पणो वसहिं । वही तिव्वाओ वेयणाओ अणुभवई तत्थ सुचिरं पि । । - वही 4 परदव्व गहण विरया सुक्खं पाविंति अविरया दुक्खं । दिट्ठतो इह सावयसुरण तह लुद्ध नंदेण । । 5 नवगुत्तीहिं विसुद्धं धरिज्ज बंभं विसुद्धपरिणामो । सव्ववयाण वि पवरं सुदुद्धरं विसयलुद्धाणं ।। वही 6 संवेगरंगशाला - गाथा - 7961-7964 7 जं किंचि दुहं लोए इह-परलोउब्भवं च अइदुसहं । तं सव्वं चिय जीवो, अणुवइ मेहुणाऽऽसत्तो ।। - 618 वही 8 अजसमणत्थं दुक्खं इहलोए दुग्गई य परलोए । संसारं च अपारं न मुणइ विसयाऽऽमिसे गिद्धी ।। -आराधनापताका - 620 १ विसयाउरेहिं बहुसो सीलं मणसा वि मयालियं जेहि । - 616 - 617 साध्वी डॉ. प्रतिभा -619 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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