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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन ऐसे प्रशस्त अहिंसक वचन ही बोले, क्योंकि सत्यवादी व्यक्ति सदैव माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूजनीय एवं स्वजन के समान सर्वप्रिय होता है। सत्य में तप, संयम आदि सर्वगुणों का समावेश हो जाता है। सत्यवादी पुरुष की रक्षा अग्नि, जल, देव, नदी, पर्वत आदि भी रक्षक बनकर करते हैं। सत्य से क्रूर गृहदशा भी टल जाती है, व्यक्ति का पागलपन दूर हो जाता है। सत्यवादी को देवता भी सदैव नमस्कार करते हैं एवं उसके आधीन बन जाते हैं। सत्यवादी की सर्वत्र प्रशंसा होती है ओर उसकी यश कीर्त्ति का प्रचार-प्रसार होता है, जगत् प्रसिद्धि होती है। जो व्यक्ति मृत्यु आ जाए, फिर भी असत्य भाषण का त्याग नहीं करता हैं, वह भाग्यवान् पुरुष कालकसूरि के समान राजा के यज्ञफल को भी निष्फल कर महासत्ता को प्राप्त करता है । तीसरे, अदत्तादानविरचित - महाव्रत के धारण करने वाले को निर्यापकाचार्य अचौर्य - महाव्रत के पालन हेतू प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि क्षपक - साधक को संसार की कोई भी वस्तु, चाहे सचित्त सजीव हो, या अजीव (जड़) या निर्जीव हो, अल्पमूल्य की हो या बहुमूल्य हो, उसके मालिक की आज्ञा के बिना ग्रहण नहीं करना चाहिए। अदत्तादानत्यागव्रत में मुनि को दन्त-शोधन की शलाका भी बिना दिए लेने की इच्छा नहीं करना चाहिए। प्रथम तो, मानव कभी संसार का सम्पूर्ण धन प्राप्त नही कर सकता है और यदि उसे सम्पूर्ण धन मिल भी जाए, तो भी वह उसका भोग नहीं कर सकता है। कदाचित्, यदि एक बार भोग भी कर लें, तो उसके मन की तृप्ति नहीं होती है। कहा भी है कि लोभ लोभ बढ़ता है। लोभ के वशीभूत होकर मानव पर्वत, गुफा, सागर आदि में भी प्रविष्ट हो जाता है, अर्थात् असाध्य कार्य करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। कभी धन के लिए व्यक्ति अपने प्रिय पारिवारिक - जनों का भी त्याग कर देता है। चोरी करने से जीव हिंसा का भी दोष लगता है, क्योंकि धन व्यक्ति का ग्यारहवां प्राण होता है। जो जिसके धन की चोरी करता है, वह उसके प्राणों का ही हरण करता है। व्यक्ति के पास धन होने है, अतः कभी-कभी व्यक्ति धन के लिए अपने प्राण भी दे देता है। वही - 602 वही - 604 वही 1 कोहेण व लोभेण व हासेण भएण वा वि तिविहेणं । सुमेरं पिलियं वज्जसु सावज्जसयमूलं ।। - 2 आराहिज्जइ गुरु देवयं व जणणि व्व जणइ वीसभं । पियबंधवुव्व तो अवितहणवयणो जणइ लोए ।। 3 सेलपुरिसोव्वमूया खलंत वयणा अयव्व जे केइ । तं पुव्वजम्मजंपियमिच्छातायस्स फलमेयं । । 4 अवि दंतसोहणं पि हु परदव्वमदिन्नयं न गिव्हिज्जा । इहपरलोयगाणं मूलं बहुदुक्खलक्खाणं । । - आराधनापताका 'गिरि - गहण - विवर - सायर - समरेसु विसंति अत्थलोहिल्ला । पियबंधू विजयं पिय पुरिसा पयहंति धणहेउं । । वही - 611 अत्थे संतम्मि सुहं जीवइ सकलत्त पुत्त संबंधी अत्थं हरमाणेणं हियं भवे जीवियं तेसि ।। 5 Jain Education International — वही 607 -612 609 147 For Private & Personal Use Only पर ही वह सुखद जीवन जीता दूसरे के धन का हरण करना www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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