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________________ 146 उत्तरगुण के अतिचार - अकल्प्य भोजन को ग्रहण करना, एषणा के सिवाय चार समितियों में प्रयत्न का अभाव, महाव्रतों की रक्षा करने वाली पच्चीस भावनाओं अथवा बारह अनुप्रेक्षाओं का अनुभावन न करना। इस प्रकार रागादिवश होकर विवेक नष्ट होने से पिण्डविशुद्धि, समितिभावना, प्रतिमा - अभिग्रह और तपरूप उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की चारित्र - विशुद्धि हे आलोचना करना चाहिए। अनशन आदि छः प्रकार के बाह्यतप एवं प्रायश्ति आदि छः प्रकार के आभ्यन्तर -तप में शक्ति होने पर भी जो प्रमाद के कारण अनाचरण किया हो, तो उन अतिचारों की आलोचना भी करने योग्य होती है। वीर्याचार में अपने वीर्य-पराक्रम को छिपाने - रूप जिन अतिचारों का सेवन किया हो, उनकी भी आलोचना करना चाहिए । समाधिमरण का तृतीय कर्त्तव्य : पुनः महाव्रतारोपण पुनः महाव्रतारोपण- समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधक को पुनः पंच महाव्रतारोपण हेतु समझाते हुए निर्यापकाचार्य कहते हैं कि यदि तुमने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों को मन, वचन, काय से कष्ट दिया हो, तो जीवहिंसा का परित्याग करो।' मिथ्यादृष्टि वैसे तो जीवों की हिंसा करते हैं, फिर भी उनके द्वारा भी कई बार जीवों की रक्षा भी की जाती हैं, अतः साधुओं को तो सदैव जीवों की रक्षा करना चाहिए । अहिंसा शत्रुता को नष्ट करती है तथा संसार - समुद्र पार करने के लिए नौका के समान है। यह मैत्रीरूपी भावना विपुल राज्य को देने वाली है। यह अहिंसा द्वेष के दावानल को दूर करने वाली एवं मोक्ष के शाश्वत् सुखों को देने वाली है। पुनः, जो असंयमी निरंकुश साधक छःकाय के जीवों को भी त्रास पहुंचाते हैं, वे भव - भ्रमण करते हुए दुःख सहते रहते हैं। अहिंसा का महत्व समझाते हुए निर्यापकाचार्य क्षपक साधक से पुनः कहते हैं- हे क्षपक ! चाहे तू कठोर तप कर, चाहे तू गुरु की आज्ञा का अनुपालन कर, कठोर साधना भी कर ले परन्तु यदि तेरे मन में जीवों के प्रति भी करुणा की भावना नहीं है, दया की भावना नहीं है, तो तेरी ये सब क्रियाएं आकाश में फूल खिलाने के समान निष्फल सिद्ध होंगी, अतः यदि तुम संसार से विरक्त होकर वैराग्य-भाव को पाना चाहते हो, तो जिन भगवान् के वचनों को सुनकर एवं हिंसा के क्या-क्या दुष्परिणाम होते हैं, उन सबको समझकर अहिंसक बनने का प्रयास करो।' दूसरे, मृषावाद - महाव्रत को धारण करने वाले क्षपक को समझाते हुए निर्यापकाचार्य कहते हैं- हे क्षपक ! क्रोध के वश, लोभ के वश, हास्य के वश अथवा भय के वश होकर सूक्ष्म या स्थूल रूप से असत्य भाषण का त्रिविध रूप से त्याग करो। सदैव हित, मित, प्रिय, छलरहित तथा सबको सुखकर लगे 1 एगिदिए पंचसु तसेसु -कय-कारणा - ऽणुमइभेयं । संघट्टण परितावण विराहणं चयसु तिविहेणं । । 'जइ मिच्छदिट्ठियाणं वि जत्तो केसुिंचि जीव कह साहूहिं नएसो कायत्वो मुणिय सारेंहि ।। 2 171 a 3 विउलं रज्जरोगेहिं वज्जियं रुवमाउयं दीहं । अन्नं पितं न सोक्खं जं जीवदयाए न हु सज्झं । । 4 चरउ तवं धरउ वयं, सरउ गुरुं करउ दुक्करं किरियं । कास कुसुमं व विहलं जइ नो जियरक्खणं कुणइ ।। 5 नाऊण दुहमणंतं जिणोवएसाओ जीववहयाणं । अहिंसानिरओ जइ निव्वेओ भवदुहेसु ।। Jain Education International - आराधनापताका – 514 रक्खाए । वही -595 - - वही वही -598 साध्वी डॉ. प्रतिभा आराधनापताका - 600 - 601 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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