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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
को दोष से मुक्त बनाया जा सकता है, क्योंकि मूलतः आत्मा दोषी नहीं है । दोष प्रमाद व कषाय के कारण होता है, इसलिए दोष से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित्त की आवश्यकता रहती है । 10. आलोचना का फल
राग-द्वेष से रहित सर्वज्ञ परमात्मा ने सर्वदुःखों का क्षय होने से शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति को ही आलोचना का फल कहा है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप को मोक्षमार्ग का हेतु कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में भी मोक्षमार्ग के यही हेतु बताए गए हैं। '
चारित्र के साथ सम्यग्ज्ञान और दर्शन- दोनों अवश्य होते हैं, किन्तु चारित्रव्रत स्वीकार करके भी प्रमादवश साधक महाव्रतों एवं मुनि - आचार में दोष लगाते हुए अपने लाखों भवों के चारित्र का नाश कर लेता है, अतः साधक उन महान् दोषों की भी शुद्धि आलोचना के द्वारा कर सकता है, क्योंकि शुद्ध चारित्र का पालन करते हुए अप्रमत्त, धीर-वीर साधु अपने शेष कर्मों का क्षय करके अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त करता है। इस तरह प्रायश्चित्त के फल जानकर क्षपक - मुनि अहंकार का त्याग कर निरभिमानी हो उत्कृष्ट आराधना - विधि के अनुसार आराधना करने की इच्छा करे । प्रायश्चित्त योग्य आलोचनीय-दोषों का निर्देश
साधक को ज्ञानाचार आदि पांच आचार-सम्बन्धी सभी छोटे-बड़े अतिचारों की अच्छी तरह आलोचना करना चाहिए । आचार के 1. ज्ञान 2. दर्शन 3. चारित्र 4. तप और 5 वीर्य - ये पांच भेद हैं। ज्ञानाचार के काल, विनय, बहुमान, अनिनव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय- ये आठ प्रकार हैं।
जैसे स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न करके अकाल में करना, ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण पुस्तकादि की उपचार - रूप से विनय - बहुमान नहीं करना, तपपूर्वक अध्ययन नहीं करना, श्रुत का अपलाप, अर्थात् सत्य को छिपाने का कार्य करना, सूत्र व अक्षर जिस रूप में हों, उसे उसी रूप में नहीं लिखना या पढ़ना, सूत्रादि का विपरीत अर्थ करना एवं सूत्र - अर्थ को अशुद्ध बोलना अथवा लिखना- इनमें से जो कोई भी अतिचार सूक्ष्म या स्थूल रूप से लगा हो, तो उनकी आलोचना करना चाहिए ।
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दर्शनाचार के निम्न आठ प्रकार
निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपवृहण स्थिरीकरण, वात्सल्य एवं प्रभावना, जैसे कभी प्रमादवश जिन-वचनों में शंका की हो, अन्य दर्शन अथवा कर्मफल की अकांक्षा की हो, सदाचार के फल के प्रति शंका की हो, अन्य धर्मों का चमत्कार देखकर भ्रमित हुआ हो, स्वधर्मी भाइयों के गुणों की प्रशंसा न की हो, साधर्मिक को धर्म में स्थिर नहीं किया हो, साधर्मिक का प्रेमपूर्वक कार्य नहीं किया हो एवं श्रुतज्ञानादि से जैनशासन की प्रभावना नहीं की हो आदि दर्शन - सम्बन्धी जो भी अतिचार लगें हों, तो उनकी आलोचना करनी चाहिए ।
चारित्राचार- • महाव्रत आदि मूलगुण एवं पिण्ड- विशुद्धि आदि उत्तरगुण-रूप तथा पांच समिति, तीन गुप्ति-रूप चारित्राचार में जो अतिचार लगा हो, उनकी आलोचना करना चाहिए । साधु के मूलगुण धर्मरूपी कल्पवृक्ष के मूल (जड़) के समान हैं।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह - परिमाणव्रत में एवं रात्रि भोजन- विरमण व्रत में जो अतिचार सेवन किया हो, उनकी सबकी सम्यक् रूप से आचार्य के पास आलोचना करना चाहिए ।
1 सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः - तत्त्वार्थसूत्र - 1/1
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