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________________ 152 साध्वी डॉ. प्रतिभा ज्ञातव्य है कि पुष्प, फलादि के मधुर विरेचन से वह क्षपक सुखपूर्वक समाधि को प्राप्त होता है। भक्त-प्रत्याख्यान द्वारा समाधिमरण प्राप्त करने वाले के लिए कहा गया है कि वह जघन्य (कम से कम) छ: मास, मध्यम चार वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक तप करें। भगवती-आराधना में भी इसे पूर्ण करने का काल बारह वर्ष ही माना गया है। इन बारह वर्षों का उपयोग किस प्रकार किया जाए, इस पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि प्रथम चार वर्ष नाना प्रकार के कायक्लेशों को दूर करने में बिताया जाता है।' बाद के चार वर्षों में विभिन्न तरह के भोज्य-पदार्थों का त्याग करके शरीर को सुखाने में बिताया जाता है। शेष चार वर्षों में से दो वर्ष कांजी और रस-व्यंजन आदि से रहित आहार खाकर व्यतीत किया जाता है, एक वर्ष मात्र कांजी-आहार लिया जाता है। अन्तिम बारहवें वर्ष के प्रथम छ: महीने में मध्यम तप किया जाता है तथा अन्तिम छ: महीने में उत्कृष्ट तप करके बिताया जाता है। इस तरह से व्यक्ति बाहर वर्षों का उत्कृष्ट तप करके बिताता है।' समाधिमरण प्राप्त देह-विसर्जन की प्रक्रिया -सामान्यतया समाधिमरण-सम्बन्धी प्रक्रिया में समाधिमरण को प्राप्त व्यक्ति के देह-विसर्जन की प्रक्रिया का भी उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा में निशीथचूर्णि, संवेगरंगशाला आदि में भी इसकी विस्तृत चर्चा है। दिगम्बर–परम्परा में भी भगवती-आराधना में भी समाधिमरण को प्राप्त देह के विसर्जन की प्रक्रिया दी गई है। इसे विजहणा के नाम से जाना जाता है। सामान्यतया यदि साधक का समाधिमरण पर्वत की गुफा आदि में, अथवा किसी वनखण्ड में होता है, तो सामान्यतया उसकी देह वहीं विसर्जित करके निर्यापकगण वापिस लौट आते थे, किन्तु ऐसा लगता है कि छठी-सातवीं शताब्दी से जब चैत्यवास या भटटारक-परम्परा का विकास हआ और देहत्याग नगर या चैत्य में होने के देह के विसर्जन का प्रश्न भी उपस्थित हुआ होगा। उसके पूर्व सामान्यतया समाधिमरण से मृत साधुओं की देह जंगल में ही छोड़ दी जाती थी। जब समाधिमरण के साधकों की मृत्यु नगरों के उपाश्रय आदि में होने लगी, तो उनके मृत देह का विसर्जन किस प्रकार से किया जाए- यह प्रश्न भी प्रमुख बना। इसके साथ-साथ छठी-सातवीं शताब्दी से जब तन्त्र का प्रभाव भी जैनों पर आया, तो विजहणा के सम्बन्ध में विभिन्न तान्त्रिक टोटके भी किए जाने लगे। विशेष रूप से यह कहा गया है कि समाधिमरण से मृतदेह को भी अखण्ड ना रखा जाए, अतः उसके उंगलियों आदि के खण्डित करने की बात भी सामने आई। साथ ही सूतक काल में मृत्यु होने पर उसके साथ पुतले आदि रखे जाने के उल्लेख भी आगमिक व्याख्याओं में तथा समाधिमरण सम्बन्धी ग्रन्थों में मिलने लगे। यदि पुतले बनाना और रखना सम्भव न हो, तो कम से कम ब्राह्मी लिपि के क और उसके नीचे त लिखने की परम्परा भी विकसित हुई। जिससे एक मानव आकृति का निर्माण हो जाता था। फिर भी समाधिमरण सम्बन्धी प्राचीन ग्रन्थों में मृतक देह के अग्नि-संस्कार का कोई उल्लेख नहीं मिलता। मात्र यही उल्लेख है कि साधु गांव में से बांसों को मांग करके लाए और उनकी अर्थी बनाकर मृतक देह को उस अर्थी के माध्यम से ले जाकर गहन जंगल में या पर्वत आदि पर छोड़ दिया जाए। इन उल्लेखों से ऐसा लगता है कि मृतदेह को जलाने की परम्परा काफी परवर्ती काल जोगेहिं विचित्तेहिं दु खवेइ खंवच्छराणि चत्तारि। वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेदि।। भगवती-आराधना, गाथा- 255 आयंबिलणिब्बियडीहिं दोण्णि आयबिलेण एक्कं च। अद्ध णादिविगठेहिं अदो अद्धं विगठेहिं।। भगवती-आराधना, गाथा- 256 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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