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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
की शुद्धि 6. दुष्कर - क्रिया, 7. विनय की प्राप्ति एवं निःशल्यता । जो साधक सरल हृदय से अपराधों को प्रकट करता है, वह उपर्युक्त इन आठ गुणों को प्राप्त करता है । 7. आलोचना दूसरों की साक्षी में करें
मेरे जैसा प्रायश्चित्तदाता, अर्थात् जानकार दूसरा कोई नहीं है, अथवा मुझसे अधिक ज्ञानवान् दूसरा कौन है ? इस तरह अभिमानवश जो अपने अपराधों को प्रकट नहीं करता है, वह महात्मा प्रमादादि से रोग की औषधि नहीं करने वाले रोगी वैद्य - चिकित्सक के समान आराधनारूपी आरोग्यता को प्राप्त नहीं करता है। जैसे कोई वैद्य रोग से ग्रसित हो एवं अभिमानवश अपने रोग को अन्य वैद्य के समक्ष प्रकट नहीं करता हो, तो वह सैकड़ों औषध करने पर भी रोग की पीड़ा से मर जाता है, उसी तरह जो अपने अपराध-रूपी रोगों को आचार्य के निकट प्रकट नहीं करता है, उस ज्ञानी पुरुष का ज्ञान नष्ट होता है, क्योंकि व्यवहार में कुशल छत्तीस गुणों से सुशोभित आचार्य को भी अपनी आलोचना सदैव पर की साक्षी में ही करना चाहिए। जैसे कुशल वैद्य अपने रोग की चिकित्सा दूसरे उत्तम वैद्य से करवाता है, तो उसकी श्रेष्ठ चिकित्सा होती है, वैसे ही प्रायश्चित्तविधि में कुशल आचार्य को भी अपने दोष अथवा शल्य को अन्य उत्तम आचार्य के समक्ष ही प्रकट करना चाहिए। साधु यदि अन्य आलोचनाचार्य के समक्ष आलोचना किए बिना ही, 'वे तो आलोचना कराते नहीं है - ऐसा मानकर स्वयं ही प्रायश्चित्त कर लेता है, तो वह आराधक नहीं कहलाता है, इसलिए प्रायश्चित्त लेने के लिए गीतार्थ की खोज क्षेत्र से सात सौ योजन एवं काल से बारह वर्ष तक (उत्कृ ष्ट) करना चाहिए । '
8. आलोचना की विधि एंव मर्यादाएं
साधक को आलोचना करते समय किस विधि का पालन करना चाहिए, इसका वर्णन करते हुए संवेगरंगशाला में बताया गया है कि आलोचना करते समय सात मर्यादाओं का पालन करना चाहिए, जो इस प्रकार हैं
1. अत्याक्षिप्त 2. प्रशस्त द्रव्यादि का योग 3. प्रशस्त दिशा के सम्मुख बैठकर 4. विनयपूर्वक 5 सरल भावपूर्वक 6. आसेवन तथा 7. छः श्रवण के मध्य आलोचना करना । 9. प्रायश्चित्त - दान एंव ग्रहण - विधि
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पूर्व में आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय आदि प्रायश्चित्त के दस भेद कहे गए हैं, उन्हीं का यहाँ उल्लेख किया गया है। इसमें जो अतिचार जिस प्रायश्चित्त से शुद्ध होता है, उसे उसके योग्य जानना चाहिए, जैसे कोई अतिचार आलोचना मात्र से शुद्ध होता है, तो कोई प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है।
प्रायश्चित्त के अन्य रूपों की चर्चा निम्न प्रकार से करते हैं
1. प्रतिक्रमणार्ह - प्रायश्चित्त का दूसरा भेद प्रतिक्रमण है। साधक जिस क्रिया के द्वारा आत्म-निरीक्षण एवं पश्चात्ताप के द्वारा अपने किए हुए पापों एवं अपराधों का प्रक्षालन करता है, वह प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का अर्थ है- पुनः लौट आना । प्रमादवश साधक का मन यदि शुभयोग से अशुभयोगों में चला जाए, तो अशुभयोग से पुनः शुभयोगों में आना प्रतिक्रमण है ।
प्रतिक्रमण से साधक पाप से निवृत्त होता है। उसके मन में पाप के प्रति घृणा होती है। असावधानी से जो भी स्खलना हुई हो, उन भूलों का भी वह परिमार्जन करता है।
1 संवेगरंगशाला - गाथा - 4976-4990
2 वही गाथा - 5018-5044
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