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________________ 142 (8) बहुजन - दोष इसमें साधक गुरु के पास आलोचना करके, फिर शंकाशील हो, उसी दोष की अन्य अनेक आचार्यो के पास जाकर आलोचना करता है । मैं कितना पापभीरु हूं, लोग मेरी प्रशंसा करे- इस भाव से भी वह अनेक आचार्यो के पास आलोचना करता है। इसे बहुजन नामक दोष कहा गया है। जैसे अंदर शल्य रह जाने पर रोगी को भयंकर वेदना होती है, वैसे ही यह प्रायश्चित्त भी भयंकर दुःखदायी है। (9) अव्यक्त - दोष - शिष्य ऐसे अगीतार्थ गुरु के पास आलोचना करता है, जिसे यह भी ज्ञात नहीं कि किस दोष का क्या प्रायश्चित्त आता है। जैसे दुर्जन से की गई मैत्री अन्त में अहितकर होती है, वैसे ही इस तरह से लिया हुआ प्रायश्चित्त लाभदायक नहीं होता है। ( 10 ) तत्सेवी - दोष - साध्वी डॉ. प्रतिभा जिस दोष की आलोचना करना है, उसी दोष का जिसने सेवन किया हो, उसके पास आलोचना करना, जिसमें गुरु एवं शिष्य- दोनों का समान अपराध हो, उसे तत्सेवी - दोष कहते हैं । इस दोष में, गुरु मुझे अधिक प्रायश्चित्त नहीं देगा - ऐसा विचार कर वह आलोचना करता है । जो मूढात्मा रक्त से सने कपड़े को रक्त साफ करता है, वह उस वस्त्र को शुद्ध नहीं कर पाता है, उसी तरह इस आलोचना के दोष को जानना चाहिए । आलोचक को आलोचना के इन दस दोषों से बचना चाहिए । जब स्वयं को शुद्ध करने का निश्चय कर लिया है, तब आचार्य भगवन्त कितना प्रायश्चित्त देंगे आदि के विकल्प को छोड़कर जो भी प्रायश्चित्त मिले, उसे स्वीकार करना चाहिए । (4) आलोचना नहीं करने से होने वाले दोष - लज्जा, गारव अथवा बहुश्रुतज्ञान आदि के अभिमान से जो अपना दुश्चरित्र (दोष) गुरु के सम्मुख प्रकट नहीं करता है, वह निश्चय से आराधक नहीं होता है, अतः किंचित् भी भूल हो जाए, तो साधक को गुरु के पास आकर बिना लज्जा उन दोषों को कहना चाहिए । लज्जा हमेशा अकार्य करने में होना चाहिए। इस विषय में एक युवराज का उदाहरण कहा गया है। एक युवराज प्रतिदिन मैथुन का सेवन करता था, जिससे उसे रोग उत्पन्न हुआ, किन्तु लज्जावश वह अपना रोग वैद्य के समक्ष प्रकट नहीं करता था। इससे उसका रोग और बढ़ने लगा, जिससे वह भोग से वंचित हुआ एवं अंत में तीव्र वेदना से मृत्यु को प्राप्त हुआ । इससे यह फलित होता है कि जिस लज्जावश युवराज ने अपने प्राणों को खोया, उसी प्रकार आलोचना करते समय लज्जा रखने से साधक असंयम में वृद्धि करता हुआ अपने संयम को खो देता है । 6. आलोचना के गुण स्वंय के दोषों की आलोचना करने से साधक को आठ गुण प्रकट होते हैं। वे अनुक्रम से इस प्रकार कहे गए हैं- 1. लघुता 2. प्रसन्नता 3. स्व - परदोष - निवृत्ति, 4. माया का त्याग 5 आत्मा 1 संवेगरंगशाला गाथा- 4930-4999 2 'वही, गाथा - 4948-4953 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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