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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 141 (3) दृष्ट-दोष इसमें गुरु आदि के द्वारा जो दोष देख लिए जाते हैं, शिष्य (साधक) उन्हीं दोषों की आलोचना करता है, अन्य अदृश्य दोषों की आलोचना नहीं करता है। इस दोष को खोदे हुए कुएं में फिर से मिट्टी भरने के समान कहा गया है। (4) बादर-दोष इसमें शिष्य (साधक) केवल स्थूल या बड़े दोष की आलोचना करता है, सूक्ष्म दोष की आलोचना नहीं करता है । जिस प्रकार कांसे की थाली बाहर से उज्ज्वल तथा भीतर से श्यामवर्ण की होती है, उसी प्रकार सशल्य आत्मा बाहर से निर्दोष एवं भीतर से सदोष, अर्थात् दूषित परिणामों वाली होती है। (5) सूक्ष्म-दोष इसमें शिष्य (साधक) केवल छोटे दोषों की आलोचना करता है, अर्थात् भय, माया, अभिमान आदि से जो केवल सूक्ष्म (सामान्य) दोष हैं, उन दोषों की आलोचना करता है, लेकिन स्थूल दोषों को गुप्त रखता है। आलोचना के ऐसे दोषों को पीतल पर सोने का झोल (परत) चढ़ाने के समान कहा गया है। उपर्युक्त दोनों दोषों में यह विचारधारा रही होती है कि जो बड़े से बड़े दोषों की आलोचना कर सकता है , वह छोटे दोषों की आलोचना क्यों न करेगा ? यहां बड़े या छोटे दोषों की आलोचना कर बडे दोषों को छिपाने की भावना रहती है। इस तरह यह मन में धूर्तता रखकर आलोचना करना है।' (6) छन्न-दोष किसी साधक के पंच महाव्रत में से कोई भी व्रत के खण्डित होने पर उसे जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, (साधक) उसे जानकर आचार्य के समक्ष आलोचना किए बिना ही, या आचार्य को बिना बताए ही, वह (साधक) स्वयं ही उस दोष-प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार, वह लज्जा का प्रदर्शन करता है और आचार्य को एकान्त स्थान में ले जाकर इतने धीरे और अस्पष्ट शब्दों में आलोचना करता है कि जिससे प्रायश्चित्त देने वाले एवं अन्य सुन न सकें। जो दोषों को कहे बिना शुद्धि की इच्छा रखता हो, उसे मरीचिका के जल के आभास के समान जानना चाहिए । जैसे उस मृग की इच्छा पूर्ण नहीं होती है, वैसे ही अपने दोषों को कहे बिना आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती है। (7)संदउलयं या शब्दाकुलित-दोष इस दोष में साधक पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में अपने दोषों को इस तरह से कहता है कि जिससे किसी को सुनाई न दे। इस दोष को फूटे घडे के समान कहा गया है । जैसे फूटे घड़े में पानी नहीं टिकता है, वैसे ही आलोचना का फल उसे प्राप्त नहीं होता है। 'स्थानांग-सूत्र के अनुसार, इस दोष में उच्च स्वर से बोलकर आलोचना करना जिससे कि दूसरे अगीतार्थ साधु सुन लें- ऐसा उल्लेख है। संवेगरंगशाला गाथा-4912-4929 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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