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________________ 140 ही अपने दोषों की आलोचना करने के योग्य होता है- ऐसा कहा गया है, इसलिए संवेगी, अपश्चात्तापी आदि गुणों से युक्त साधु को ही आलोचना देना चाहिए । प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले के मन में ऐसा विचार आना चाहिए कि मैं धन्य हूँ कि जिस कारण इस जन्म में ही आचार्यश्री ने मुझ पर महती कृपा कर मुझे कृतार्थ कर मुझे विशुद्ध कर दिया, अन्यथा परलोक में इन दुष्कृत्यों के भयंकर परिणाम (कष्ट) सहन करने पडते, अतः प्रायश्चित्त लेकर मैं निर्भय बनूं और पुनः दोष-रहित जीवन-यापन करने के लिए उद्यमी बनूं। 4. आलोचना के दोष 1 (क) वही - गाथा - 4911 (ख) स्थानांगसूत्र, 107 (ग) भगवतीसूत्र, 25/107. 2 आकंपइत्ता अणुमाइत्ता, जं दिट्ठ बायरंचसुहुमंबा । छणं सदाउल बहुजण अव्यक्त तत्सेवी । 3 आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठ बादरं च सुहुमं च । छणं सदाउल बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ।। संवेगरंगशाला आलोचना दस दोष (1) आकम्प्य - आकम्पित - दोष, (2) अनुमन्य या अनुमानित - दोष (3) (5) सूक्ष्म - दोष ( 6 ) छन्न-दोष (7) शब्दाकुलित - दोष ( 8 ) बहुजन - दोष (10) तत्सेवी - दोष । संवेगरंगशाला में आलोचना के दस दोषों की प्रतिपादक जो गाथा दी स्थानांगसूत्र में भी मिलती है । भगवती - आराधना में भी आलोचना के दस दोषों की जो गाथा मिलती हैं, वह इसी प्रकार की हैं।' इस प्रकार, आलोचना के दस दोष सभी परम्पराओं में एक समान ही मिलते हैं। (1) आकम्प्य या आकम्पित दोष Jain Education International - कहे स्थांनागसूत्र, दशमस्थान, पृ. - 707 भगवती आराधना, गाथा 564 दृष्ट आलोचना करने वाले के मन में ऐसा चिन्तन नहीं होना चाहिए कि मैं गुरु की ऐसी सेवाभक्ति करूं, जिससे गुरु प्रसन्न होकर मुझे अल्प प्रायश्चित्त दें। इस तरह, अल्प प्रायश्चित्त से ही सम्पूर्ण पापों का प्रक्षालन कर लूं ऐसी भावना से आहार, जल, उपकरण आदि की सेवा से गुरु को आधीन करके फिर आलोचना करूं- यह विचार ही आलोचना का प्रथम दोष है । जिस प्रकार जीने की आकांक्षा से युक्त मनुष्य अहितकर को भी हितकर मानता है, वैसे ही इस दोष को भी समझना चाहिए। (2) अनुमान्य-दोष - इसमें शिष्य अपनी दुर्बलता प्रकट करके तदनुसार गुरु के समक्ष दोष निवेदन करता है, जिससे कि गुरु अधिक प्रायश्चित्त न दे, अर्थात् गुरु अल्प प्रायश्चित्त दे। इस भाव से वह अनुनय कर आलोचना करता है। इस दोष को सुख की चाह से अहितकर भोजन को भी हितकारी मानकर खाने के समान कहा गया है। For Private & Personal Use Only साध्वी डॉ. प्रतिभा गए हैं (4) बादर - दोष अव्यक्त - दोष एवं - दोष ( 9 ) गई है, वही गाथा www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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