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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 139 सम्यक् यतना नहीं कर पाने से इन जीवों को परिताप या दुःख आदि देने से जो अतिचार लगा हो, उसे अचार्य के समक्ष प्रकट करे। इसी तरह, बारह ही अन्य अणुव्रतों या व्रतों में जो-जो भी अतिचार लगे हो, उनकी आलोचना श्रावक को भी करना चाहिए। जिस तरह प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका में भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र-वीर्याचार की आलोचना की है, उसी प्रकार संवेगरंगशाला में भी तप, वीर्य एवं दर्शन सम्बन्धी आलोचना का वर्णन किया गया है। श्रावक को इन सभी अतिचारों की सम्यक् आलोचना करने के पश्चात् जैन आगमों के विरुद्ध जो भी कार्य किया हो, या करने योग्य कार्य न किया हो, अथवा करते हुए भी सम्यक् प्रकार से नहीं किया हो तथा जिनवचन में श्रद्धा नहीं की हो, इन सबकी सम्यक् रूप से आलोचना करना चाहिए। इसमें आगे श्रावक की आलोचना के पश्चात् मुनि की आलोचना का उल्लेख है। उसमें अनेक स्थानों पर अष्ट प्रवचन माता, अर्थात् पांच समिति, तीन गुप्ति का उल्लेख मिलता है, साथ ही आलोचनाविधान-द्वार में मुनि को किन-किन अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, इसका भी स्पष्ट उल्लेख है। 2. आलोचना किसके समक्ष करना चाहिए ? जिस प्रकार रोगी पुरुष अपने रोगों को किसी कुशल चिकित्सक के सामने ही प्रकट करता है, उसी तरह साधक को भी अपने दोष कुशल आचार्य के सामने ही प्रकट करना चाहिए। प्रायश्चित्तदाता को शास्त्रों का ज्ञान होना जरुरी है। जिसकी दृष्टि सम्यक् हो, जो दीर्घदृष्टा हो, ऐसे आचार्य केसमक्ष भावशल्यको निकालना चाहिए। ऐसे आचार्य के समक्ष अपने भावशल्य का प्रकटीकरण करना चाहिए। संवेगरंगशाला में प्रायश्चित्त देने के दो आधार कहे गए हैं, आगम-व्यवहार और श्रुत-व्यवहार। परवर्तीकाल में आज्ञा-व्यवहार, धारणा-व्यवहार एवं जीत-व्यवहार को भी प्रायश्चित्त का आधार माना गया है। इसी तरह, प्रवचन-सारोद्धार में भी प्रायश्चित्त के यहीं पांच आधार बताए गए हैं। उपर्युक्त पांचों प्रकार के व्यवहार को जानने वाले ही प्रायश्चित्त देने के अधिकारी हैं। इन पांचों व्यवहारो में से किसी एक व्यवहार के आधार पर गीतार्थ ही प्राचश्चित्त देने का अधिकारी है, अगीतार्थ को प्रायश्चित्त देने का सर्वथा निषेध है। प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका के पांचवें अगीतार्थ-द्वार में भी यही कहा गया है कि गीतार्थ के समक्ष ही अपनी आलोचना करें व अपने उत्तमार्थ विधि की आराधना करें। 3. आलोचना करने वाले का स्वरूप आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है, जो जाति, कुल एवं विनय से सम्पन्न हो, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के गुणों से युक्त हों, क्षमादान को धारण करने वाला हो एवं मायाचार से रहित अपश्चात्तापी हो। संवेगरंगशाला की तरह स्थानांगसूत्र एवं भगवती-सूत्र में भी, दस स्थानों से सम्पन्न अणगार 1वही - गाथा- 3027-3046 'संवेगरंगशाला - गाथा- 5045-5062 वही - गाथा-4885-4886 'प्रवचनसारोद्धार गाथा- 854, आराधनापताका - गाथा 63 संवेगरंगशाला - गाथा-4901-4910 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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