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________________ 138 आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करता है। यदि वह क्षपक निर्यापक- आचार्य के पास अपने दुष्कृत्यों की आलोचना नहीं करता है, तो अपनी आत्मा को शुद्ध नहीं कर पाता और परिणामस्वरूप संसार से भी मुक्त नहीं हो पाता । संवेगरंगशाला' में आलोचना के दस द्वारों का विवरण किया गया है, जो इस प्रकार है 1. आलोचना कब और किसके समक्ष की जाए ? 2. जिसके समक्ष आलोचना की जाए, वह कैसा हो ? 3. आलोचना करने वाले का स्वरूप कैसा हो ? 4. आलोचना के दस दोष । 5. आलोचना नहीं करने से उत्पन्न होने वाले दोष । 6. आलोचना के गुण । 7. आलोचना दूसरे की साक्षी में करें। 8. आलोचना की विधि एवं मर्यादाएं | 9. प्रायश्चित्तविधि | 10. आलोचना का प्रतिफल । 1. आलोचना कब करना चाहिए ? - जिस प्रकार व्यक्ति यात्रा करता है, चलते समय कांटा लग न जाए, इस कारण वह अप्रमत्त व सावधान होता हुआ गमन करता है, उसी प्रकार साधक को भी अप्रमत्त होकर संयम की आराधना करना चाहिए, फिर भी किसी कारणवश मुनि - आचार अथवा व्रतों में दोष लग ही जाते हैं, तो उन दोषों की शुद्धि हेतु आलोचना करना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई अपराध हो गया और कहना भूल गया हो, तो उस अपराध की आलोचना या तो पाक्षिक, अथवा चातुर्मासिक या वार्षिक - प्रतिक्रमण (संवत्सरी) के दिन तो अवश्य कर लेना चाहिए। इस तरह, आलोचना का समय आने पर प्रमत्त एवं अप्रमत्त- दोनों प्रकार के साधुओं को अपने पापों का प्रायश्चित्त करना चाहिए। आलोचना किसकी ? साध्वी डॉ. प्रतिभा संवेगरंगशाला में कहा गया है कि आराधना में उद्यमशील बनें । उत्तम साधक को दुर्ध्यान के अधीनस्थ होकर ऐसा चिंतन नहीं करना चाहिए कि मैंने अनेक आचार्यों के पास आलोचना कर ली है और उनके द्वारा दिए गए प्रायश्चित्त को भी मैंने स्वीकार कर लिया है और तब से मैं अपनी सभी क्रियाओं का सम्पादन सावधानीपूर्वक कर रहा हूँ, अतः अब मुझे आलोचना करने की आवश्यकता नहीं है, साथ ही गृहस्थ - उपासक को भी अपने व्रतों में लगे हुए सूक्ष्म अतिचारों की भी आलोचना करना चाहिए । संवेगरंगशाला में आगे यह भी कहा गया है कि देशचारित्र स्वीकार करने वाले श्रावक को दोष लगते ही हैं, क्योंकि वह सर्वविरति नहीं है, जैसे- प्रथम व्रत में वह छः काय जीवों की विराधना से विरत नहीं हो पाता है, मात्र त्रसकाय के जीवों की हिंसा से विरत होता है, एकेन्द्रिय जीवों की 1 संवेगरंगशाला - गाथा- 4871-4876 2 'संवेगरंगशाला गाथा - 4877-4883 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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