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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
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अर्थात् मरण के समय अपने शिष्यों, बालमुनियों एवं साध्वियों को रोते देखकर उत्तके ध्यान में विध्न भी उत्पन्न हो सकता है, साथ ही शिष्य-वर्ग आहार-पानी, सेवा शुश्रुषा में यदि प्रमाद करे, तो भी साधक को साधना में असमाधि उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। इस कारण, अपने गच्छ में या अपने शिष्यों के मध्य रहकर अनशन स्वीकार करने वाले को एवं उस गच्छ के नवीन आचार्य को अप्रशम-भाव से ये दोष लगते हैं। इन्हीं दोषों से बचने के लिए तथा आराधना निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो, इस हेत आचार्य या क्षपक परगण में संक्रमण करता है, अर्थात अपने गच्छ का त्याग करता है।
|संवेगरंगशाला - गाथा 4618-4623
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