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(स) भगवती आराधना में गण-संक्रमण
भगवती आराधना' में जब क्षपक या आचार्य समाधिमरण धारण करने का विचार करता है, तो उसे गणत्याग आवश्यक है। वह मन में सोचता है कि यह शरीर अशुचि से युक्त है, इसलिए वह शरीर-धारण से ग्लानि करता है। उसे, शरीर-धारण में कोई हर्ष नहीं होता । दुःख या रोगों के घर इस शरीर से डरकर समाधिमरण के भाव से वह अपने शिष्य के पास जाता है। संलेखना करने वाले दो प्रकार के होते हैं- एक आचार्य दूसरे साधु । यदि आचार्य संलेखना धारण करने का निश्चय करे, तो उसे अपने संघ के सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिए कि उसके बाद में संघ की व्यवस्था कौन संभालेगा ? इस पर विचार कर उसे संघ-संचालन की व्यवस्था करना चाहिए। अपनी आयु की स्थिति का विचार कर समस्त संघ को और बालाचार्य को बुलाकर शुभ दिन, शुभ करण, शुभ नक्षत्र और शुभ लग्न में तथा शुभ देश में विहार करना चाहिए । भगवती - आराधना में भी परगणाचार्य का कथन करते । इस प्रकार, अपने गण से पूछकर रत्नत्रय में उत्कृष्ट रूप से प्रवृत्ति करने में तत्पर आचार्य आराधना करने के लिए दूसरे गण में जाने का अपना मानस दृढ़ करता है। दूसरे गण में किस कारण जाते हैं ? ऐसी आशंका होने पर अपने गण में रहने के दोष कहते हैंअपने गण में रहने पर आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, निर्भयता, स्नेह, करुणा ध्यान में विघ्न और असमाधि - ये नौ दोष होते हैं। इन्हीं दोषों का वर्णन संवेगरंगशाला में भी किया गया I
अपने संघ में रहने पर किसी को आज्ञा दे और वह न माने तो परिणामों में क्रोध का भाव हो सकता है। यदि कोई गलती करे, तो उसे अपना समझकर कठोर वचन भी बोलने आ सकता है । किसी को हित की प्रेरणा करने पर भी वह न माने, तो कलह पैदा हो सकता है। किसी को दोष (गलती करते देखकर मन में संताप पैदा हो सकता है। रोगवश अपने ही परिणाम बिगड़ जाएं, तो किसी का भय न होने से अयोग्य आचरण भी कर सकता है। मरते समय परिचित साधुओं के प्रति स्नेहभाव आ सकता है, या किसी को दुःखी देखकर करुणा - भाव हो सकता है। ध्यान में बाधा पड़ सकती है और समाधि नहीं बन सकती है। ये सारे दोष अपने गण में रहकर समाधि करने में लग सकते हैं तथा अपने गण में ही रहे, तो किसी भी बात को लेकर वृद्ध मुनि अपयश कर सकते हैं। किसी को शिक्षा देने पर क्षुद्र अज्ञानी कलह कर सकते हैं। मार्ग को नहीं जानने वाले और कठोर स्वभाव वाले मुनि आचार्य की आज्ञा न मानें, तो आचार्य को कोप उत्पन्न होने से समाधि बिगड़ सकती है।
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जो आचार्य अपना गण त्यागकर दूसरे गण में रहता है, उसे वहाँ शिक्षा आदि देने का काम नहीं रहता, इससे वहाँ आज्ञा भंग का प्रश्न भी नहीं रहता । आज्ञा भंग होने पर भी वह मन में विचारता है कि मैंने इनका कोई उपकार तो किया नहीं, तब ये मेरी आज्ञा का पालन क्यों करेंगे ? अतः आज्ञा-भंग होने पर भी उसके असमाधि नहीं होती । गुणों से हीन क्षुद्र मुनियों, तप से वृद्ध स्थविरों और रत्नत्रयरूप मार्ग को न जानने वालों को असंयमरूप प्रवृत्ति करते हुए देखकर 'ये हमारे शिष्य हैं, संघ के हैं- इस प्रकार के ममत्व-भाव से उनके प्रति कठोर कहा जाए, अथवा वे क्षुद्र आदि उन्हें कठोर वचन कहे, यह दूसरा दोष है। गुरु की शिक्षा को सहन न करने से आचार्य का भी उन क्षुद्र आदि के साथ कलह हो सकता है, और उससे आचार्य, अथवा उन क्षुद्र आदि मुनियों को दुःख आदि दोष होते हैं ।
1 भगवती आराधना, 386-400
साध्वी डॉ. प्रतिभा
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