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(ब) संवेगरंगशाला में गण-संक्रमण
संवेगरंगशाला के अनुसार भी परगणसंक्रमण - विधि में सर्वप्रथम आचार्य अपने स्थान पर नूतन आचार्य को आसीन कर देता है, फिर अपने गण (समुदाय) एवं नूतन आचार्य को बुलाकर उनसे संलेखना ग्रहण करने के लिए परगण में प्रवेश हेतु आज्ञा मांगता है। जब शिष्य गुरु के मुख
गणत्याग की बात श्रवण करते हैं, तो वे अपने आर्द्र नेत्रों से एवं गद्गद् वाणी से गुरु को कहते हैं कि हे गुरुदेव ! यह आप क्या कर रहे हैं ? क्या हममे ऐसी बुद्धि, अर्थात् गीतार्थता नहीं है ? क्या हम आपके चरणों की सेवा के योग्य भी नहीं हैं, क्या हम विधिपूर्वक संलेखना कराने में अकुशल हैं ? हे भगवन् ! क्या आपश्री का हमें त्याग कर जाना उचित है ? आज भी यह गच्छ आपश्री के द्वारा शोभा को प्राप्त हो रहा है। अपने शिष्यों द्वारा ऐसे वचन सुनकर आचार्य अपनी मधुर वाणी से इस प्रकार कहते हैं- "हे महानुभावों ! तुम्हारा यह सब सोचना, बोलना व्यर्थ है, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिशाली व्यक्ति होगा, जो उचित कार्य में बाधक बनेगा ? अथवा, क्या आगम - शास्त्रों में इस प्रकार का विधान नहीं किया गया है, अथवा पूर्व में किसी ने इस प्रकार की समाधिमरण की साधना को अंगीकार नहीं किया है ? फिर, जीवन भी तो क्षणभंगुर है जीवन को प्रतिक्षण विनष्ट होता क्या तुम नहीं देख रहे हो, जिससे तुम मर्यादा से रहित होकर, आग्रह के वशीभूत बनकर ऐसा बोल रहे हो। गुरु एवं आचार्य की वाणी को श्रवण कर शिष्यादि पुनः उनसे इस प्रकार अनुनय-विनय करते हैं- "हे भगवन् ! यदि आपको साधना ही करना है, तो अन्य गच्छ में जाने का क्या प्रयोजन है ? आप अपने गच्छ में ही इच्छित उद्देश्य को पूर्ण करें, क्योंकि यहां भी आपकी साधना को सुखद बनाने वाले गीतार्थ, उत्साही, निर्भयी, क्षमावान्, विनयवान्, संवेगी आदि गुणों से युक्त अनेक श्रमण हैं। इस तरह, शिष्यों के कथन का श्रवण कर उस कथन पर चिन्तन-मनन कर अपने हिताहित व लाभहानि का अनुचिन्तन करते हुए आचार्य को परगण में संक्रमण करना चाहिए । संवेगरंगशाला में यह भी निर्देश दिया गया है कि जो क्षपक या आचार्य अपने गच्छ में संलेखना ग्रहण करता है, उसे निम्न दोष लग सकते हैं- (1) आज़ा - दोष (2) कठोर वचन (3) कलहकरण (4) परिताप (5) स्वछन्दता (6) स्नेह राग (7) करुणा ( 8 ) ध्यान में विघ्न आदि असमाधि का भाव आ सकता है।' इस बात को आगे स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि जब आचार्य अपने ही गच्छ में अनशन स्वीकार कर ले, तो स्थविर छोटे मुनि, नूतन दीक्षित मुनि, आदि आचार्य की आज्ञा की अवहेलना करते हों, तो इससे उनके मन में असमाधि व ग्लानि के भाव उत्पन्न होने की संभावना रहती है । साधुओं को असंयम में प्रवृत्ति करते देखकर कभी आचार्य कठोर वचन भी कह दे, इस स्थिति में श्रमण-वर्ग में सहनशीलता का अभाव होने के कारण वे उनसे कलह भी कर सकते हैं, इससे संताप - दोष लगता है। इसी तरह, कभी-कभी आचार्य को शिष्यादि के प्रति ममत्व-भाव से भी असमाधि उत्पन्न हो सकती है। आगे यह भी कहा गया है कि अपने गच्छ के साधुओं को रागादि से पीडित देखकर भी आचार्य को दुःख या स्नेह आदि के कारण असमाधि के भाव उत्पन्न हो सकते हैं। अपने गच्छ में अपने शिष्यों पर विश्वास होने के कारण जब क्षपक तृषा एवं क्षुधा न सहन कर पाए, तो अकल्पनीय वस्तु की याचना भी कर सकता है। आत्यन्तिक-वियोग,
1 संवेगरंगशाला गाथा / 4590-4602
2 वही, गाथा 4603 - 4607
3
'संवेगरंगशाला गाथा 4608 - 4609
वही
- गाथा 4614-4617
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साध्वी डॉ. प्रतिभा
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