SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन हो, तो मुनिगण चाहें, तो जा सकते हैं, न चाहें, तो न जाएं।' जो मुनि तीव्र भक्ति - राग से संलेखना के स्थान पर जाते हैं, वे भी देवगति का सुख भोगकर उत्तम स्थान मोक्ष को प्राप्त करते हैं। जो जीव एक भव में भी समाधिमरणपूर्वक मरण को प्राप्त करते है, वे सात-आठ भव से अधिक काल तक संसार में परिभ्रमण नहीं करते हैं। जिसकी समाधिमरण में भक्ति नहीं है, उसका मरते समय समाधिपूर्वक मरण नहीं होता है। वचन - गुप्ति और वचन - समिति से रहित जो हल्ला-गुल्ला करने वाले लोग हैं, उन्हें क्षपक के समीप नहीं जाने देना चाहिए। यदि वे जाएं, तो वहीं तक जाएं, जहां तक से उनके वचन क्षपक को सुनाई न दें। ऐसे अशिष्ट जनों का क्षपक के समीप जाने का निषेध करने का प्रयोजन यह है कि उनके मर्यादारहित वचनों को सुनकर क्षपक की समाधि में बाधा हो सकती है, क्योंकि कमजोर व्यक्ति ऐसे-वैसे वचन सुनकर कुद्ध हो सकता है, अर्थात् उसके परिणाम संक्लिष्ट हो सकते हैं।' आगम के अर्थ के ज्ञाता मुनियों को भी क्षपक के पास में भोजन आदि की कथा नहीं करना चाहिए और आलोचना-सम्बन्धी अतिचारों की भी चर्चा नहीं करनी चाहिए । यदि करना ही हो, तो बहुत से युक्त आचार वाले आचार्यो के रहते हुए प्रच्छन्न रूप से ही करना चाहिए, जिससे क्षपक उसे न सुन सके । 2 प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश, नियोग-आज्ञादान, जल के सिवाय तीन प्रकार के आहार का त्याग, प्रायश्चित्त आदि सब प्रथम स्वीकार किए आचार्य के पास ही करना चाहिए, क्योंकि जिसे उस क्षपक ने अपना निर्यापक बनाया है, वही उसके लिए प्रमाण होता है, किन्तु वह निर्यापकाचार्य ऐसा करने में असमर्थ हो, तो उसकी अनुज्ञा से अन्य भी प्रमाण होता है । युक्त आचार वाले अनेक आचार्यो के होते हुए भी क्षपक को प्रत्याख्यान आदि प्रथम स्वीकार किए निर्यापक के पास ही करना चाहिए। तेल और कसैले द्रव आदि से क्षपक को बहुत बार कुल्ले कराना चाहिए, इससे जीभ और कानों को बल मिलता है और मुख साफ होता है। समाधिमरण - ग्रहण की विधि • आराधना - पताका के अनुसार जिस व्यक्ति को अपनी शारीरिक स्थिति से मृत्यु का पूर्वाभास हो जाए, तो उसे समाधिमरण के लिए उद्यत हो जाना चाहिए। समाधिमरण ग्रहण करने से पूर्व योग्य आचार्य या गुरु की तथा योग्य निर्यापकों की खोज की जाए। निर्यापक की खोज करने के लिए उसे क्षेत्र की अपेक्षा से एक-दो नहीं, बल्कि सात सौ योजन तक भी जाना पड़े, तो जाना चाहिए और काल की अपेक्षा से, जिनके सान्निध्य में समाधिमरण की साधना करना है, उनकी खोज बारह वर्ष तक भी लगातार करना पड़े, तो करना चाहिए । फिर, अगर योग्य गुरु मिल जाए, तो ही समाधिमरण करे। सर्वप्रथम, क्षपक गुरु की खोज करे, फिर अपने लिए संस्तारक - बिछौना की 3 वही 3 - गाथा- 679 2 'भगवती आराधना वही — - गाथा - 676 Jain Education International 129 गाथा- 685 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy