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________________ 128 अनुसार चार-चार निर्यापक कम करते रहना चाहिए । अन्त में, चार निर्यापक भी समाधिमरण - साधना को सम्पन्न कर सकते हैं। अधिक काल खराब होने पर कम-से-कम दो निर्यापक भी होते हैं, किन्तु जिनागम में किसी भी अवस्था में एक निर्यापक नहीं कहा गया है । ' एक निर्यापक के द्वारा आत्मसाधना का भी त्याग होता है, क्षपक का भी त्याग होता है और प्रवचन का भी त्याग होता है तथा दुःख उठाना होता है। इससे क्षपक का असमाधिमरण पूर्वक मरण होता है, धर्म में दूषण लगता है और दुर्गति होती है। एक निर्यापक के द्वारा आत्मसाधना और क्षपक इस प्रकार बाधित होते हैं। आगे इसे इस प्रकार कहते हैं क्षपक का कार्य करते रहने से निर्यापक स्वंय के हेतु भिक्षा ग्रहण, निद्रा और मलमूत्र का त्याग नहीं कर सकता और शारीरिक--मल न त्यागने से निर्यापक को कष्ट होता है। यदि निर्यापक भिक्षा के लिए भ्रमण करता है तथा सोता है और मल आदि त्यागने जाता है, तो क्षपक का त्याग करता है। अपना, अथवा क्षपक का त्याग करने पर यतिधर्म का त्याग होता है, क्योंकि यति का धर्म वैयावृत्य करना है। क्षपक को छोड़कर जाने पर उसका त्याग होता है, ज्ञान का भी व्युच्छेद होता है। निर्यापक के अभाव में वह मर भी सकता है, ऐसा होने प्रवचन का त्याग होता है। यहाँ प्रवचन शब्द से जिनशासन कहा है। विद्वान् तो विरल ही होते हैं। अकेला निर्यापक उपवास आदि से अतिखिन्न होकर यदि मर जाए, तो कौन शास्त्रों का उपदेश देगा और कौन शास्त्रों को याद रखेगा ? अतः प्रवचन का त्याग होता है। क्षपक को त्यागने पर क्षपक को दुःख होता है, क्योंकि उसका कोई भी परिचारक नहीं होता। भोजनादि त्यागने से निर्यापक को दुःख होता है तथा क्षपक को त्यागने पर क्षपक का असमाधिमरण होता है, क्योंकि उसके समीप में चित्त को समाधान देने वाला कोई नहीं होता है। आहार आदि के अभाव निर्यापक की असमाधि होती है, क्योंकि वह भोजन आदि के त्याग से उत्पन्न दुःख से व्याकुल होता है। यदि निर्यापक आहारादि के लिए गया हो, तो उसके अभाव में क्षपक अयोग्य का सेवन कर सकता है, अथवा मिथ्यादृष्टियों के पास जाकर याचना कर सकता है कि मैं भूख व प्यास से पीड़ित हूँ, मुझे खाने को या पीने को दो । समीप में निर्यापक न होने पर क्षपक समाधि के बिना मरण कर सकता है और उस असमाधिमरण से अशुभ ध्यानवश दुर्गति में जा सकता है। योग्य आचार वाले आचार्य के द्वारा क्षपक की संलेखना हो रही है - यह सुनकर सब मुनियों को वहां जाना चाहिए, किन्तु यदि निर्यापक - आचार्य मन्द चारित्र वाला 1 निज्जावया य दोण्णि वि होंति जहण्णेण काल संसयणा । एक्को णिज्जावयओ, ण होइ कइया वि जिणसुत्ते । । 2 3 । एगो जइ निज्जवओ अप्पा चत्तो परो पवयणं च । वसणसमाधिमरणं उड्डाहो दुग्गदी चावि ।। 'खवग पडिजग्गणाए भिक्खग्गहणादिमकुणमाणेण । अप्पा चत्तो तव्विवरीदो खवगो हवदि चत्तो ।। 4 'खवयस्स अप्पणो वा चाए चत्तो हु होइ जइधम्मो •णाणस्स य वुच्छेदो पवयणचाओ कओ होदि । । 5 चायम्मि कीरमाणे वसणं खवयस्स अप्पणो चावि । खवयस्स अप्पणो वा चायम्मि हवेज्ज असमाधि ।। 6 सेवेज्ज वा अकप्पं कुज्जा वा जायणाइ उड्डाह । तण्हाछुधादिभग्गो खवओ सुण्णम्मि णिज्जवहे ! ।। 7 वही - गाथा- 678 Jain Education International वही वही - भगवती आराधना - गाथा- 673 वही - गाथा- 672 · गाथा- 674 - गाथा- 675 वही - गाथा- 676 भगवती आराधना For Private & Personal Use Only साध्वी डॉ. प्रतिभा - गाथा- 677 www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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