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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 127 मुनि क्षपक के मल-मूत्र विसर्जन का कार्य करते हैं और सूर्य के उदय तथा अस्त होने के समय वसति, उपकरण और संथारे की प्रतिलेखना करते हैं।' _चार यति सावधानीपूर्वक क्षपक के द्वार की रक्षा करते हैं। ऐसा वे निर्यापक इसलिए करते हैं कि कोई असंयमी व्यक्ति अन्दर न चला आए। चार मुनि सावधानीपूर्वक समवशरण-द्वार, अर्थात् धर्मोपदेश करने के स्थान के द्वारों की रक्षा करते हैं। निद्रा को जीत लेने वाले और निद्रा को जीतने के इच्छुक चार यति रात में क्षपक के पास जागते हैं और चार मुनि अपने रहने के क्षेत्र की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों की परीक्षा करते हैं, अर्थात् जिस क्षेत्र में क्षपक समाधिमरण करता है, उस देश के अच्छे-बुरे समाचारों की खबर रखकर उनकी परीक्षा करते हैं कि समाधि में कोई बाधा आने का खतरा तो नहीं है। क्षपक के आवास के बाहर स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त के ज्ञाता चार मुनि क्रम से एक-एक करके सभा में धर्म सुनने के लिए आए हए श्रोताओं को पर्व वर्णित चार कथाएँ इस प्रकार से कहते हैं कि दरवर्ती मनष्य उनका शब्द न सुन सके, अर्थात् क्षपक को सुनाई न दें। इतने धीरे से बोलने से क्षपक को किसी प्रकार की बाधा नहीं होती। अनेक शास्त्रों के ज्ञाता और वाद करने में कुशल चार मुनि धर्मकथा करने वालों की रक्षा के लिए सभा में सिंह के समान विचरते हैं, अर्थात् धर्मकथा में कोई विवादी यदि विवाद खड़ा कर दे, तो वाद करने में कुशल मुनि उसका उत्तर देने के लिए तत्पर रहते हैं। इस प्रकार, माहात्म्यशाली अडतालीस निर्यापक-यति क्षपक की समाधि में उत्कष्ट प्रयत्नशील रहते हए उस., संसार-सागर से निकलने के लिए प्रेरित करते हैं। .. ऊपर कहे गुणवाले यति ही निर्यापक होते हैं, किन्तु भरत ऐरावत-क्षेत्र में काल का विचित्र परिवर्तन होता रहता है और काल के अनुसार प्राणियों के गुण भी बदलते रहते हैं, अतः जिस काल में जिस प्रकार के शोभनीय गुण सम्भव हैं, उस काल में उस गुण वाले मुनि ही निर्यापक के रूप में ग्राह्य होते हैं। यहाँ कहते हैं- पांच भरत और पांच ऐरावत-क्षेत्रों में जब जैसा काल हो, तब उसी काल के अनुकूल गुण वाले अड़तालीस निर्यापक न मिलें, तो चवालीस निर्यापक स्थापित करना चाहिए।' इस प्रकार, ज्यों-ज्यों काल का प्रभाव बढ़ता जाए, त्यों-त्यों देश-काल और परिस्थिति के 'काइयमादी सत्वं चत्तारि पदिवन्ति खवयस्स। पडिलेहति य उवद्योकाले सेज्जुवधिसंथारं।। - वही - गाथा- 664 खवगस्स घरदुवारं सारक्खंति जदणाए दु चत्तारि। चत्तारि समोसरणदुवारं रक्खंति जदणाए।। - वही - गाथा- 665 'जिदणिद्दा तल्लिच्छा रादो जग्गंति तह य चत्तारि। चत्तारि गवेसंति खु खेत्ते देसप्पवत्तीओ।। - वही- गाथा-666 * वाहिं असद्दवडियं कहति चउरो चदुविधकहाओ। ससमयपरसमविदू परिसाए समोसदाए दु।। - भगवती-आराधना - गाथा-667 'वादी चत्तारि जणा सीहाणुग तह अणेयसत्थविद। धम्मकहयाण रक्खाहेदुं विहरंति परिसाए।। - वही - गाथा-668 "एवं महाणुभावा पग्गिहिदाए समाधिजदणाए। .. तं णिज्जवंति खवयं अड़यालीसं हि णिज्जवया।। - वही - गाथा-669 जो जारिसओ कालो भरदेखदेस होई वासेस। ते तारिसया तदिया चोददालीसं पिणिज्जवया।। - वही - गाथा-670 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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