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________________ 126 साध्वी डॉ. प्रतिभा आमर्शन कहते हैं और समस्त शरीर का हस्त से स्पर्शन करने को परिमर्शन कहते हैं तथा इधर-उधर जाने को चंक्रमण कहते हैं, अर्थात् निर्यापक या परिचारक-मुनि क्षपक के शरीर को अपने हाथ से सहलाते हैं, दबाते हैं, चलने-फिरने में उसकी सहायता करते हैं, सोने-बैठने या उठने में भी उसकी सहायता करते हैं, उद्वर्तन, अर्थात् एक करवट से दूसरी करवट बदलवाते हैं, हाथ-पैर फैलाने और संकोचने में सहायता करते हैं।' चार परिचारक यति मुनिमार्ग के अनुसार क्षपक की ऊपर कही गई शारीरिक क्रियाओं में प्रतिदिन लगे रहते हैं। वे क्षपक की समाधि की कामना करते हुए परिचर्या करते हैं। चार परिचारक-मुनि विकथा त्यागकर चार प्रकार की धर्मकथा कहते हैं। धर्मकथा के चार प्रकार हैं- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वेजनी। चार परिचारक-यति उस क्षपक के लिए उसको इष्ट खान-पान बिना ग्लानि के लाते हैं। उन्हें ऐसा संक्लेश नहीं होता कि कब तक हम इसके लिए लाएं। उनके द्वारा लाया गया खान-पान आदि उद्गम आदि दोषों से रहित होता है और वात-पित्त-कफ को उत्पन्न करने वाला भी नहीं होता है। क्षपक आहार की लिप्सावश आहार करना पसंद नहीं करता है, किन्तु भूख और प्यास- परीषह को शान्त करने हेतु खान-पान की इच्छा करता है। जो यति आहार लाते हैं, वे मायावी नहीं होते, अयोग्य आहार को योग्य नहीं कहते तथा वे मोह और अन्तराय-कर्मों का क्षयोपशम होने से भिक्षालब्धि से युक्त होते हैं। उन्हें भिक्षा अवश्य मिल जाती है। अलब्धिमान मुनि भिक्षा न मिलने पर खाली हाथ लौटकर क्षपक को कष्ट पहुँचाते हैं।' चार परिचारक-मुनि क्षपक के लिए बिना ग्लानि के उद्गम आदि दोषों से रहित वात-पित्त-कफ को पैदा न करने वाला पानक लाते हैं। ये पानक (पेय पदार्थ) माया-रहित और भिक्षालब्धि से सम्पन्न होते हैं। आचार्य की अनुज्ञा से दो-दो. मुनि भोजन और पान अलग-अलग लाते हैं। __ चार यति उन मुनियों के द्वारा लाए गए खान-पान की बिना किसी प्रकार की ग्लानि के, प्रमादरहित होकर रक्षा करते हैं, ताकि उनमें प्रसादि न गिरे, अथवा कोई उसमें त्रसादि जन्तु न गिरा दे। वे सब क्षपक की समाधि के इच्छुक होते हैं कि उसकी समाधि निर्विघ्न पूर्ण हो। चार 'अमासण परिमासणचंकमणसयण - णिसीदणे ठाणे। उव्वत्तपरियत्तणपसारणा-उंटणादीसु।। - भगवती-आराधना - गाथा- 648 संजदकमेण खवयस्स देहकिरियासु णिच्चमाउत्ता। चदुरो समाधिकामा ओलग्गंता पडिचरंति।। - वही - गाथा-649 भत्तित्थिरायणवदकंदप्पत्थऽणट्टियकहाओ। वज्जित्ता विकहाओ अज्झप्पविराधणकरीओ।। - वही - गाथा-650 4 चत्तारि जणा भत्तं उवकप्पेंति अगिलाए पाओग्गं। छंदियमवगद्दोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा।। - वही - गाथा-661 'चतारि जणा पाणायमुवकप्पंति अगिलाए पाओग्गं। छदियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा।। - भगवती-आराधना - गाथा- 662 चत्तारि जणा रक्खन्ति दवियमवकप्पियं तयं तेहिं। अगिलाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति।। - वही - गाथा-663 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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