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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 125 तो जिनशासन की भी निन्दा होती है। अयोग्य निर्यापक के कारण समाधिमरण के साधक में भी असमाधि का भाव उत्पन्न हो जाता है, अतः निर्यापकों का परीक्षण भी आवश्यक है। जो क्षपक को समाधि नहीं दे सकते- ऐसे निर्यापकों के सान्निध्य में संलेखना स्वीकार करने पर क्षपक की समाधि खण्डित होने की सम्भावना रहती है', क्षपक आर्त होकर चिल्लाता है, जिनाज्ञा को त्यागकर आत्मबल की हानि करता है तथा सिद्धि के विपरीत मार्ग का अनुसरण कर समाज में अपयश को प्राप्त करता है। (ब) भगवती–आराधना में निर्यापकों का स्वरूप एव कार्य निर्यापक, अर्थात् समाधिमरण करने वाले सहायक मुनि वे हो सकते हैं, जिन्हें धर्म प्रिय हो, जो धर्म में स्थिर हों, संसार से भीरु हों, पाप से डरते हों, धैर्यवान हों, क्षपक के अभिप्राय को जानते हों, विश्वास के योग्य हों और प्रत्याख्यान के क्रम को जानते हों। निर्यापक यतियों को चारित्र प्रिय होता है। इससे वे क्षपक को भी चारित्र में प्रवृत्ति करने के लिए उत्साहित करते रहते हैं और उसकी साधना में सहायता करते हैं। यद्यपि सम्यग्दृष्टि होने से जो यति चारित्र में अनुराग तो रखते हों। लेकिन चारित्र-मोह का उदय होने से चारित्र में दृढ़ नहीं होते, वे समाधिमरण करवाने में सहयोगी नहीं हो सकते हैं। इसलिए निर्यापक-यतियों के लिए दृढ़-चारित्र विशेषण दिया गया है। जिनका चारित्र दृढ़ नहीं होता, वे असंयम का पूर्ण परिहार नहीं करते हैं, मात्र पाप-भीरु होने से असंयम का परिहार करते हैं, क्योंकि वे विचित्र दुःखों की खानरूप चार गतियों में भ्रमण के भय से व्याकुल होते हैं, परीषह को सहने वाले होते हैं। जो परीषहों से हार जाता है, वह. संयम का पालन नहीं करता- ऐसा माना जाता है। क्षपक के न कहने पर भी उसके संकेत-मात्र से उसका अभिप्राय जानकर वैयावृत्य में प्रवृत्त हो जाते हैं, वे निर्यापक अभिप्राय को जानने वाले होते हैं तथा गुरुओं एवं क्षपक के विश्वासयोग्य होते हैं, असंयम में प्रवृत्ति नहीं करते, क्षपक की वैयावृत्ति में तत्पर रहते हैं। वे सागार और निरागार–प्रत्याख्यान के क्रम को जानते हैं। उक्त गुणों से युक्त होने पर भी जिन्होंने पहले किसी क्षपक की समाधि नहीं देखी है, ऐसे यतियों को गुरु-क्षपक की परिचर्या में नियुक्त नहीं करते हैं। निर्यापक, यह योग्य है और अयोग्य है- इस प्रकार भोजन और पान की परीक्षा में कुशल होते हैं। वे क्षपक के चित्त का समाधान करने में तत्पर रहते हैं। जिन्होंने प्रायश्चित्त-ग्रन्थों को पढ़ा है या सुना है, जो सूत्र के अर्थ को हृदय से स्वीकार करते हैं, अपने और दूसरों के उद्धार करने के माहात्म्य को जानते हैं- ऐसे मुनि ही निर्यापक बनने के योग्य होते हैं। शास्त्र में इन निर्यापकों की अधिकतम संख्या अड़तालीस बताई गई है। क्षपक के शरीर के एक देश के स्पर्शन करने को 'प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका, गाथा- 42 वही, गाथा- 43 'पियधम्मा दढधम्मा संविग्गा वज्जभीरुणो धीरा। छंदण्णू पच्चइया पच्चखाणम्मि य विदण्हू ।। 7 भगवती-आराधना - गाथा- 644, 'कप्पाकप्पे कसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा। गीदत्था भयवंतो अऽदालीसं तु निज्जवया।। - वही - गाथा- 647 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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