SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 124 साध्वी डॉ. प्रतिभा निर्यापकों की संख्या एवं उनका दायित्व (अ) आराधना-पताका के अनुसार-आराधना-पताका के अनुसार जिस व्यक्ति का शरीर क्षीण हो जाए, यहाँ तक कि वह स्वंय का कार्य सम्पादन करने में भी असमर्थ हो जाए- ऐसे व्यक्ति को योग्य निर्यापक के सान्निध्य में समाधिमरण ग्रहण कर लेना चाहिए। ___ आराधना-पताका के तृतीय निर्यामक-द्वार में यह बताया गया है कि जो व्यक्ति समाधिमरण के समय अपने पास भी रहना चाहता हो, परन्तु वह भ्रष्ट चरित्र वाला हो, कुशील सेवन करता हो, ऐसे निर्यापक के सान्निध्य में संलेखना न करें। सामान्यतः समाधिमरण के साधक के सान्निध्य में आचार्य या गुरु द्वारा नियुक्त किए गए अड़तालीस निर्यापक होना चाहिए। वे निर्यापक धर्म में श्रद्धा-सम्पन्न हों, पापकर्म से डरते हों, सद्गुणों से सम्पन्न हों, जो क्षपक के इंगित आकार को जानने वाले हों, समय के ज्ञाता हों, योग्य-अयोग्य स्थिति के जानकार हों, जो क्षपक की इच्छा को जानने वाले हों, कल्पाकल्प के ज्ञाता हों और शास्त्रों के रहस्य के ज्ञाता हो, ऐसे गुरु की आज्ञा को मानने वाले अड़तालीस निर्यापक होते हैं। अड़तालीस निर्यापकों में से चार क्षपक को खड़ा करने वाले, चार क्षपक को करवट बदलाने वाले चार द्वार पर खडे रहने वाले चार संस्तारक बिछाने वाले. चार क्षपक को धर्मकथा सनाने वाले और शास्त्रों के ज्ञाता हों, चार निर्यापक उद्यतवचन का प्रतिवाद करने में समर्थ वादी के रूप में नियुक्त होते हैं तथा चार बाह्य-द्वार पर प्रतिकूल परिस्थितियों में रक्षा करने के लिए नियुक्त होते हैं, चार निर्यापक क्षपक के लिए अनुकूल भोजन लाने वाले तथा चार क्षपक के लिए पानी लाने वाले, चार उच्चार (मलोत्सर्ग) परठने हेतु, चार प्रस्रवण-प्रतिष्ठापना के लिए नियुक्त होते हैं, चार बाहर से आने वाले, आगन्तुकों को धर्मकथा सुनाने वाले तथा चार गीतार्थ-निर्यापक चारों दिशाओं में नियुक्त होते हैं। जब भरत ऐरावत-क्षेत्र में जैसा समय होता है, तब उस समय वैसे ही अड़तालीस निर्यापक होते हैं। यह संख्या अधिकतम कही गई है, किन्तु न्यूनतम दो निर्यापक तो होना ही चाहिए, जिनमें से एक क्षपक के पास रहे तथा दूसरा आहार-पानी की गवेषणा करने जाए। एक ही निर्यापक होने पर क्षपक की आराधना में बाधा होती है एवं विराधना उत्पन्न होने की सम्भावना लगती है तथा कार्य की हानि भी हो सकती है। क्षपक जिस सिद्धि की साधना करने जा रहा है, वह साधना भी सफल नहीं होती, साथ ही क्षपक के सान्निध्य में योग्य निर्यापक न हो, MI 'पासत्थोसन्न - कुसीलठाण परिवज्जिया उ निज्जवगा। पियधम्म वज्जभीरु गुणसंपन्ना अपरितंता।। - आराधनापताका - गाथा-29 मरणसमाहीकसला इंगिय - पत्थियसहाववित्तारो। ववहारविहिविहिन्नू अब्भुज्जयमरणसारहिणो।। - वही - गाथा-30 'कप्पाकप्पे कुसला समाहिकरणुज्जया सुयरहस्सा। मुणिणो अडयालीसं गुरुदिन्नां हुंति निज्जवग्गा।। - वही - गाथा-32 * उव्वत्तण परियत्तण-पसारणा-ऽऽकुंचणाइसु चउरो। खवगस्स समाहाणं करिति निजामगामुणिणो।। -आराधनापताका - गाथा-34 जो जारिसओ कालो भरहेरवएसु होइ वासेसु। ते तारिसया तइया अडयालीसं तु निज्जवगा।। - वही - गाथा- 39 'एए उक्कोसेणं परिहाणीए जहन्नओ दोन्नि। एगो परन्निपासे बीओ पाणाइ गच्छिज्जा।। - वही - गाथा-40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy