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साध्वी डॉ. प्रतिभा
हो तो हा. ती पग. हग जागापमा "
गवेषणा करे। संस्तारक की प्रतिलेखना करे कि कहीं कोई जीव-जन्तु तो नहीं, फिर निरवद्य-स्थान की खोज करे, जहाँ पर किसी भी प्रकार का शोरगुल न हो, एकान्त, शान्त, निर्जन वन में आसन लगाए, क्योंकि जहाँ शोरगुल होगा, वहाँ मन अशान्त बना रहेगा। समाधिमरण साधनामय जीवन की चरम व परम परिणति है। जीवन-पर्यन्त आन्तरिक-शत्रुओं के साथ किए गए संग्राम में अंतिम रूप से विजय प्राप्त करने का महान् अभियान समाधिमरण है, अतः इस हेतु पूर्व कृत्यों की आलोचना के पश्चात् समाधिमरण के योग्य निरवद्य- शान्त स्थान को प्राप्त कर सर्वप्रथम वहाँ संस्तारक, अर्थात् घास आदि की मृत्युशैया तैयार की जाती है, फिर आचार्य के सम्मुख, यदि पंच महाव्रतों का मुनि
न: ग्रहण और श्रावक हो, तो प्रथम बार पंच महाव्रतों का ग्रहण किया जाता है। फिर अठारह पापस्थानों का त्याग तथा क्रमशः चतुर्विध आहार का त्याग कर देह के प्रति ममत्व का विसर्जन किया जाता है।
संथारा ग्रहण करने वाला पूर्व-उत्तर या ईशान-दिशा में मुँह करके सर्वप्रथम नमस्कार-मंत्र का उच्चारण करे। तत्पश्चात्, गुरु-वन्दनसूत्र से गुरु को वन्दन करे, फिर ईयापथ-प्रतिक्रमण करे। तस्स-उत्तरी के पाठपूर्वक एक इरियावहियं, एक लोगस्स व नमस्कार-मन्त्रपूर्वक ध्यान करके प्रकट में एक नमस्कार मन्त्र बोले। कायोत्सर्ग शुद्धि का पाठ बोले, फिर लोगस्स बोले, फिर देव, गुरु, संघ तथा चौरासी लाख जीव-योनियों से क्षमायाचना करे, तत्पश्चात्, यदि श्रावक हो, तो पुनः अहिंसा आदि बारह व्रतों का पच्चखाण कर ले और साधु हो, तो पुनः सामायिकपूर्वक पंच-महाव्रत और रात्रिभोजन-त्यागपूर्वक नवीन दीक्षा ले। पूर्वकृत पापों की निःशल्य होकर आलोचना करे। हिंसा आदि अठारह पापस्थानों का और चारों या तीनों आहारों का तीन करण, तीन योग से त्याग करे। इसके पश्चात्, संथारे में दृढ़ता के साथ स्थिरता बनी रहे, इस हेतु आर्तध्यान व रौद्रध्यान छोड़कर पूरे घर में धार्मिक-वातावरण बनाए रखना चाहिए। संथारा पूर्ण होने तक नमस्कार-मन्त्र, लोगस्स, नमोत्थुणं, नमोचउवीसाए, बारह भावना का स्वरूप, तीन मनोरथ का चिंतन, चार शरण ग्रहण कर संथारे को दृढ़ बनाने वाले स्तवन आदि उस क्षपक-मुनि या श्रावक को सुनाना चाहिए।
समाधिमरण का प्रथम कर्तव्य : गणत्याग (अ) आराधना-पताका में गण-संक्रमण
न जन्म हमारे हाथ में है, न मृत्यु, लेकिन जीवन कैसा जीना, जीवन को कैसे ढालना, यह हमारे हाथ की बात है। जन्म किस समय होगा, किस स्थान पर होगा या किस घर में होगा? यह भी निश्चित नहीं है, न मृत्यु की तिथि निश्चित है, परन्तु हमारे हाथ में है-सम्पूर्ण जीवन, जो जीया जाता है। उसे ही जीवनचर्या भी कहते हैं। जीवन कैसे जीना है ? इसका चिंतन-मनन कर निर्णय किया जा सकता है।
जिस व्यक्ति का चिंतन गहराई से भर गया हो, वह व्यक्ति केवल जीने के लिए जीवन नहीं जीता है, अपितु मौत पर विजय पाने के लिए जीता है और सच्चाई यह है कि जो मौत पर विजय पाने क लिए जीता है, वही सच्चे अर्थों में जीवन जीता है। उसी का जीवन सार्थक है। प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका भी समाधिमरण की साधना का, यानी मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला का एक ग्रन्थ है। समाधिमरण तभी सम्भव है, जब व्यक्ति अपने मनोबल को मजबूत बना ले। साधना के मार्ग पर जिसने भी कदम बढाया, वही समाधि में स्थित हो सकता है। प्रस्तत कृति आराधना-पताका के तेरहवें गणनिसर्ग-द्वार में बताया गया है कि समाधिमरण की साधना करने वाला यदि स्वयं आचार्य है, तो जब उस आचार्य को यह ज्ञात हो जाए कि मेरा. आयुष्य
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