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________________ 120 साध्वी डॉ. प्रतिभा गीतार्थ-निर्यापक प्रासुक-द्रव्य, क्षपक का हित, उसके उदय में आए हुए कर्म तथा वात-पित्त और कफ के उपचार को जानकर विशिष्ट परिस्थिति में उचित शिक्षा अथवा उचित पान या भोजन देकर क्षपक को क्षुधा एवं पिपासा से क्लान्त नहीं होने देता', इसलिए प्रस्तुत कृति में यह बताया गया है कि चाहे दीर्घकाल तक योग्य निर्यापक की प्रतीक्षा करना पड़े, किन्तु कभी भी अयोग्य निर्यापक के सान्निध्य में समाधिमरण ग्रहण नहीं करना चाहिए। .. आराधना-पताका के छठवें असंविग्नद्वार में यह भी बताया गया है कि समाधिमरण के इच्छुक साधक को भले ही गीतार्थ-गुरु मिल जाए, परन्तु वह गीतार्थ-मुनि असंविग्न, यानी शुद्ध आचरण न हो, तो उसके सान्निध्य में भी समाधिमरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसके सान्निध्य में रहने से अंगचतुष्टय, अर्थात् मनुष्यत्व, शुद्ध श्रद्धा, संयम और सम्यक् पुरुषार्थ के नष्ट होने का भय रहता है। वह असंविग्न संयम में आधाकर्मी आदि दोष भी लगा देता है, इसलिए आराधना-पताका में कहा गया है कि संविग्न गीतार्थ-गुरु की खोज बारह वर्षों तक तथा सात सौ योजन तक भी करना पड़े, तो करना चाहिए, परन्तु ऐसे असंविग्न-निर्यापक के सान्निध्य में कभी भी समाधिमरण धारण नहीं करना चाहिए। भगवती-आराधना में भी आचार्य के विशेष गुणों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि निर्यापक-आचार्य यदि आचारयुक्त है, तो उससे क्षपक को क्या लाभ होता है ? इस विषय का विवेचन किया गया है। जो आचार्य पंचाचार का पालन करता हो, जिसकी सारी क्रियाएँ सम्यक् व विवेक सहित होती हैं. वह क्षपा स भी पांच प्रकार के आचारों का पालन करवाने की कोशिश करता है। जो आचार्य आचार-गुण से युक्त नहीं होता, उसका सान्निध्य लेने से निम्न दोष उत्पन्न होने की सम्भावना होती है। जिस आचार्य में ज्ञान का अभाव है, ज्ञानाचार नहीं है, वह आचार्य क्षपक को अनेक दोष लगा देगा। अशुद्ध स्थान, उपकरण एवं भक्तपान आदि की व्यवस्था में ऐसे भुनियों को नियुक्त अन्नेहिं वा उवाएहिं सो समाहिं कुणइ तस्स ।। - वही, 60 1 जाणइ फासुयदव्वं खवगस्स हियं च तह उइन्नाणं। जाणइ पडियारं वात-पित्त-सिंभाण गीयत्थो।। - आराधनापताका, 61 तह य असंविग्गाणं गीयत्थाण वि न चेव पामूले। अणसणविही विहेया खवगेणं जेणि मे दोसा।। वही,64 3 नासेइ असंदिग्गो चउरंगं सव्वलोयसारंग। नट्टम्मि उ चउरंगे न हु सुलह होइ चउरंग।। - वही -65 * पंच व छ व सत्तसए अइरेगं वा वि जोयणाणं तु।। संविग्गपायमूलं परिमग्गिज्जा अपरितंतो।। - वही-68 'भगवतीआराधना, 318-380 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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