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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 119 रागादि अन्तरंग-ग्रन्थियों से विप्रमुक्त होकर समाधिमरण के द्वारा देहत्याग तो करते हैं और मुक्ति का वरण करते हैं।' समाधिमरण हेतु योग्य आचार्यों एवं निर्यापकों की खोज की आवश्यकता __ आराधना-पताका में, क्षपक जब आराधना के लिए उद्यत होता है, तब उसे किसी-न-किसी का आश्रय लेना ही पड़ता है। वह आचार्य या गुरु, जिसके सान्निध्य में वह समाधिमरण ग्रहण करता है, वे गुरु या निर्यापक किस प्रकार के होना चाहिए, इसका वर्णन आराधना-पताका के पाँचवें अगीतार्थ-द्वार में बताया गया है। इसके अनुसार अगीतार्थ गुरु या आचार्य के सान्निध्य में समाधिमरण ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो गीतार्थ नहीं है, जो देश, काल, परिस्थितियों का ज्ञाता नहीं है, वह सम्यक् प्रकार से समाधिमरण करवाने में समर्थ नहीं होता है। गीतार्थ के लिए आवश्यक है कि उसके मन में मानवता का निवास हो। जिसके दिल में देव, गुरु, धर्म के प्रति श्रद्धा का भाव हो तथा जो तप, संयम एवं पुरुषार्थ में अग्रणी होता है, वही गीतार्थ-निर्यापक होता हैं, जबकि अगीतार्थ में ये योग्यताएँ नहीं होती हैं। अगीतार्थ-निर्यापक क्षपक-साधक को क्षुधा-पिपासा से पीड़ित होने पर जब वह रात्रि में जल आदि की याचना करता है, तो अनुचित बोलता है और फिर उसे बीच में ही छोड़कर वापस चला जाता है, फलतः वह क्षपक-साधक भी पीड़ा. से वशाल कर तथा दीक्षा त्यागकर पुनः गृहस्थ होने की सोचता है, फलतः आत्तध्यान से युक्त होने पर वह क्षपक मरकर नरक, तिर्यंच आदि गतियों में जन्म लेता है। सत्य तो यह है कि किस परिस्थिति-विशेष में किस प्रकार का आचरण या व्यवहार क्षपक-साधक के साथ करना चाहिए, इस बात से अज्ञात होने के कारण अगीतार्थ-निर्यापक क्षपक का अहित ही करता है। इसके विपरीत, जो गीतार्थ-निर्यापक होता है, वह विशिष्ट परिस्थिति में धर्म और शास्त्र का आधार लेकर योग्य मार्ग निकाल लेता है, जिससे न तो क्षपक का अहित होता है और न क्षपक को कोई पीड़ा होती है, न ही धर्मसंघ की निन्दा होती है, इसलिए आराधना-पताका में यह बताया गया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाले क्षपक को गीतार्थ-गरु. आचार्य व निर्यापक की खोज में क्षेत्र की अपेक्षा से छ: सौ या सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष तक भी योग्य निर्यापक आचार्य की खोज करनी पड़े, तो भी करे, परन्तु अगीतार्थ के पास समाधिमरण की साधना न करे। गीतार्थ वह व्यक्ति होता है, जो क्षपक की इच्छा को पूर्ण करके और उसका देह-परिकर्म करके, अथवा अन्य उपायों के द्वारा उसकी असमाधि व बैचेनी को दूर कर समाधिमरण में सहायक होता है। अणसणपडिवत्ति पूण अगिअत्थाणं न चेव पामले। कायव्वा खवगेणं किं कारण ? जेणि मे दोसा।। आराधनापताका, गाथा-48 किं पुण तं चउरंगं जनझैं दुल्लहं पुणो होइ ?। माणुस्सं 1 धम्मसुई 2 सद्धा 3 तवसंजमे विरियं 4।। - आराधनापताका- 51 'किह नासिज्ज अगीओ खुहा- पिवासाहिं पीडिओ सो उ। ओहासइ रयणीए तो निद्धम्मो त्ति छडिज्जा ।। -वही, 51 अंतो वा बाहिं वा दिया ठराओ व सो परिच्चत्तो। अट्टदुहट्टवसट्टो उन्निक्खमणाइ कुज्जा ही ।। -वही,, 52 एक व दो व तित्ति उ उक्कोसं बारसेव वासाइं। गीयत्थपायमूलं परिमग्गिज्जा अपरितंतो।। -वही.. 56 खवयस्स इच्छसंपायणेण देह पडिकम्मकरणेण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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