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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 121 करेगा, जिनको यह भय नहीं है कि इस प्रकार असंयम का सेवन करने से महान् कर्मों का बन्ध होगा या हमारा संसार-परिवर्द्धन होगा, जो अनेक आपत्तियों का मूल-मन्त्र है। _ जो आचारवान-आचार्य या निर्यापक होता है, वह इन दोषों से रहित होता है, इसलिए जो दोषों से दूर रहता है और गुणग्राही होता है, ऐसा आचारवान आचार्य ही निर्यापक होता है। क्षपक ऐसे आचारनिष्ठ आचार्य की खोज करे, फिर मिलने पर उनके चरणों में समाधि-भाव को ग्रहण करे। संवेगरंगशाला' में भी बताया गया है कि क्षपक किन निर्यापक-आचार्य का आश्रय लेता है। जिस तरह नगर से प्रस्थान करने से पूर्व व्यक्ति सार्थवाह (सारथी) की खोज करता है, उसी तरह परगण-संक्रमण करने से पूर्व क्षपक निर्यापक-आचार्य की खोज करता है। इसमें भी यही बताया गया है कि वह क्षपक क्षेत्र की अपेक्षा से छ: सौ या सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष तक निर्यापक की खोज करता है। निर्यापक आचार्य (सस्थित) - चारित्र से श्रेष्ठ, शरणागतवत्सल. स्थिर सौम्य गम्भीर महासात्विक आदि, ये सामान्य गुण आचार्य में सहज (स्वभाव) ही होते हैं। इनके अतिरिक्त भी. क्षपक 1. आचारवान् 2. आधारवान 3. व्यवहारवान 4. लज्जा दूर करने वाला 5. शुद्धि करने वाला (प्रकुर्वी,) 6. निर्वाह करने वाला (निर्यामक,) 7. अपाय-दर्शक और 8. अपरिश्रावी- इन आठ गुणों से युक्त आचार्य की खोज करता है। 1. आचारवान्-जो आचार्य निरतिचारपूर्वक पंच-आचार का पालन करता है, दूसरों को भी पांच प्रकार के आचार-पालन में लगाता है, शास्त्रानुसार आचार-पालन का उपदेश देता है, जो दस प्रकार के कल्पों का पालन करता है तथा पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होता है, वह आचारवान् है। 2. आधारवान्-संवेगरंगशाला में आगे निर्यापक के आधारवान् गुण का कथन किया गया है। जो चौदह पूर्व, दस पूर्व, अथवा नौ पूर्वधारी हो, महाबुद्धिशाली हो, सागर के समान गम्भीर हो, कल्प-व्यवहार आदि प्रायश्चित्त-शास्त्रों का ज्ञाता हो. वह ज्ञानी आधारवान होता है। जैसे मकान का आधार नींव है, उसी प्रकार विकसित जीवन का आधार ज्ञान है, अतः संवेगरंगशाला में आधारवान की विशेषता बताते हए कहा गया है कि जो चौदह पर्व नौ पर्व या दस पर्व का धारी हो. सागर के समान गम्भीर हो, कल्प-व्यवहार आदि प्रायश्चित्त-शास्त्रों का ज्ञाता हो, ऐसा ज्ञानी व्यक्ति ही आधारवान् होता है। व्यक्ति में अनादिकाल से कुसंस्कार भरे हुए हैं। इस दुर्लभ संयम को पाकर भी यदि वैराग्यप्रद देशना प्राप्त न हो, तो कुसंस्कार जाग्रत हो जाते हैं, क्षपक संयम से पतित हो सकता है, अतः संयम में स्थिर रखने के लिए आधारवान् का ज्ञानी होना आवश्यक है। यदि क्षुधा-तृषा की पीड़ा को क्षपक सहन नहीं कर पाए, तो शुभ-भाव से च्युत हो जाता है और आर्तध्यान करने लगता है, उसको धर्म के प्रति द्वेषभाव भी हो सकता है, ऐसी परिस्थिति में गीतार्थ-आचार्य वैराग्यप्रद देशना देकर क्षपक की समाधि बनाए रखता है और रत्नत्रय में उसको स्थिर करता है, फिर भी क्षपक समाधि को प्राप्त ना हो, तो आचार्य विधिपूर्वक विवेक से उस क्षपक की इच्छा की पूर्ति करके उसको धर्म में स्थिर करता है। 'संवेगरंगशाला - 4630 -संवेगरंगशाला - गाथा- 4630-4638 वही - गाथा - 4639-4656 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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