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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन बचकर निकलना संभव न हो। इसके अलावा, सामान्य और प्राकृतिक - अवस्थाओं में मृत्यु को सन्निकट जानकर समाधिमरण कर सकता है।' ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं- जब व्यक्ति की समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो जाएं, अपने कार्य को पूरा करने में असमर्थ हो जाएं, शरीर सूखकर अस्थिपंजर, अर्थात् हड्डियों का ढांचा - मात्र रह जाए, पचन - पाचन की शक्ति मन्द पड़ जाए, आहार-विहार आदि क्रियाएँ करना मुश्किल हो जाए, इसके कारण साधना या संयम पालन करने में विघ्न-बाधा उपस्थित होने लगे, तब व्यक्ति समाधिमरण ग्रहण कर सकता है। 'मूलाराधना' में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए निम्न छः मुख्य कारण बताए गए हैं - 1. दुर्चिकित्स्यव्याधि - संयम का परित्याग किए बिना व्याधि का उपचार सम्भव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर । 2. वृद्धावस्था जो श्रमण - जीवन की साधना करने में बाधक हो । 3. मानव, देव, तिर्यंच - सम्बन्धी कठिन उपसर्ग उपस्थित हों, चारित्रविनाश के लिए उपसर्ग दिए जाते हों । 4. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो । 5. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथ - भ्रष्ट हो जाए । 6. देखने, श्रवण करने और पैर से चलने की शक्ति क्षीण हो जाए । 113 | इसी तरह के अन्य कारण भी उपस्थित हो जाने पर साधक अनशन का अधिकारी होता है आचार्य समन्तभद्र के अनुसार- प्रतिकाररहित असाध्य रोग को प्राप्त मारणान्तिक- उपसर्ग, दुर्भिक्ष, रुग्णता की स्थिति में, अथवा अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर निकट भविष्य में मृत्यु के अपरिहार्य बनने पर साधक संलेखना कर सकता है। 'भगवती आराधना' कुछ कथानकों आधार पर समाधिमरण के उचित अवसर के संदर्भ में प्रकाश डाला गया है। ये कथानक जरा, रोग, वृद्धावस्था आदि के कारण समाधिमरण करने वाले व्यक्तियों के न होकर उन व्यक्तियों के हैं, जिन्होंने किंसी बाह्य-उपसर्ग के कारण अपने धर्म या जीवन की पवित्रता की रक्षा करने के निमित्त से अपना देह त्याग किया था । भगवती - आराधना में विषम परिस्थिति में समाधिमरण स्वीकार करने वालों के कथानक इस प्रकार हैंअयोध्या नाम की नगरी में था। उसने पत्नी को त्यागकर मुनि में हाथी के कलेवर में प्रवेश करके समाधिमरण की साधना की । धर्मसिंह नाम का राजा था। उसकी पत्नी का नाम चन्द्रशीला दीक्षा धारण की और अपने श्वसुर के भय से कोल्लगिरि नगर 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (भाग - 2) - पृ. 436. 2 मूलाराधना 2- पृ. - 71-74 3 उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निः प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः ।। सागारधर्माऽमृत - पृ. - 160. 4 'कोसलय धम्मसीहो अठ्ठे साधेदि गिद्धपुछ्रेण । णयरम्मि य कोल्लगिरे चंदसिरिं विप्पजहिदूण ।। - भगवतीआराधना 2067 Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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