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________________ 112 साध्वी डॉ. प्रतिभा भी प्रकार से मेरे पुण्य प्रबल हों और इस उपसर्ग से यदि मैं जीवित बच जाऊँ, तो आगम के अनुसार इसका पारणा कर आहार आदि ग्रहण करूंगा। आचारांग की शीलांक-टीका' के अनुसार, समाधिमरण करने के उचित अवसर निम्नलिखित ___ 1. रुखा-सूखा नीरस भोजन करने से, अथवा तपस्या से शरीर अत्यन्त ग्लान हो गया हो। 2. शरीर आवश्यक-क्रिया करने में अत्यन्त असमर्थ हो गया हो। 3. उठने, बैठने, करवट बदलने आदि नित्य क्रियाएँ करने में शरीर असमर्थ हो गया हो। इस प्रकार, जब शरीर अत्यन्त ग्लान क्षीण हो जाए, तभी भिक्षु को अपनी परिस्थिति के आधार पर त्रिविध रूप में, अर्थात् भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण या प्रायोपगमन में से अपनी योग्यता, क्षमता और शारीरिक-शक्ति के अनुसार किसी एक प्रकार के समाधिमरण का चुनाव कर लेना चाहिए। 'आराधना सार' में समाधिमरण के योग्य अवसर पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया हैं - जब बुढ़ापा घिरकर आ जाए, शरीर में बुढ़ापे के पूर्व लक्षण दिखाई देने लगें, स्पर्श, गन्ध, वर्ण, शब्द को ग्रहण करने वाली इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से विमुख हो जाए, आयुष्यरूपी जल समाप्त होने की स्थिति हो, हड्डियों के जोड़ शिथिल हो जाएं, अर्थात् शरीर इतना कृशकाय हो जाए कि वह स्वयं कांपने लगे आदि अवस्थाएं ही समाधिमरण के लिए उचित हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र की टीका' में पण्डित सुखलाल संघवी ने लिखा है- व्यक्ति को जब अपना अंत समय निकटस्थ जान पड़ता हो तथा वह अपनी धर्म-क्रियाएँ और आवश्यक कर्तव्यों का प्रतिपालन ठीक ढंग से न कर पाए, तो ऐसे व्यक्ति को समाधिमरण ग्रहण कर लेना चाहिए। आचार्य तुलसी ने आयारों की अपनी व्याख्या में लिखा है- व्यक्ति को जब अपना शरीर बोझ, अर्थात् भारभूत लगने लगे, वृद्धावस्था, रोग, उपसर्ग आदि के कारण जिन्दगी भारभूत महसूस होने लगे तथा अपनी दैनिक क्रिया-कलापों का सम्पादन ठीक ढंग से नहीं कर पाता हो, तो उस व्यक्ति को समाधिमरण ग्रहण कर लेना चाहिए।' न्यायविद् टी. के. तुकोल के अनुसार- समाधिमरण ग्रहण करने का उचित अवसर जीवन की अंतिम वेला है, अर्थात मत्य के आगमन का समय जब अत्यन्त समीप होता व्यक्ति समाधिमरण कर सकता है।' जैन धर्म-दर्शन के मर्मज्ञ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अनिवार्य मृत्यु के कारण उपस्थित होने पर समाधिमरण किया जा सकता है। मृत्यु के अनिवार्य कारण इस प्रकार हो सकते हैंअकस्मात् कोई विपत्ति आ जाना, जिससे प्राणरक्षा सम्भव न हो, जैसे आग में घिर जाना, जल में डूबने जैसी स्थिति हो जाना, हिंसक पशु या किसी दुष्ट व्यक्ति के चंगुल में फंस जाना, जिससे आचारांग शीलांग टीका, पत्रांक 284, आचारांगसूत्र (मधुकर मुनि) - पृ. 279. जरवग्घिणी ण चंपई जाव ण वियलाइ हंति अक्खाई। बुद्धि जाव ण णासइ आउजलं जाव ण परिगलई।। आराधनासार - 25. 'तत्त्वार्थसूत्र .. अनुवादक- पण्डित सुखलाल संघवी - पृ.- 183. 4 आयारो, आचार्य तुलसी - पृ. - 293. Sallekhana is not suicide - page-6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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