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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन किया था तथा स्वदार - सन्तोष इच्छा - परिणामरूप व्रत यावत् जीवन के लिए अंगीकार किया था । अब उन्हीं प्रभु परमात्मा की साक्षी से सर्वथा - प्राणातिपाता, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और सम्पूर्ण परिग्रह का भी त्याग करता हूँ। मैं सर्वथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशून्य, परपरिवाद, रति, अरति माया - मृषावाद और मिथ्या - दर्शनशल्य आदि अठारह पापों का भी त्याग करता हूँ। इसी प्रकार से अशन, पान, खादिम और स्वादिम- इन चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ । यदि मैं इस प्रकार समीपस्थ मृत्यु-उपसर्ग से बच गया, तो मुझे आहारादि ग्रहण की छूट है, किन्तु यदि इस उपसर्ग से मुक्त न हो पाया, तो मुझे इस सबका जीवन - पर्यन्त के लिए त्याग हो । निश्चय करके सुदर्शन ने उपर्युक्त प्रकार से सागारी - प्रतिमा - अनशन - व्रत धारण कर लिया, अर्थात् उन्होंने दृढ़तापूर्वक मन बनाकर सापवाद-समाधिमरण का निश्चय किया ।' ऐसा दृढ़ इस प्रकार, समाधिमरण के योग्य अवसर के सम्बन्ध में भगवती - सूत्र और अन्तकृत्दशा से जो कथानक लिया गया है, उसमें कुछ अन्तर है। भगवती - सूत्र में जहाँ स्कन्दक आराधना करते हुए काय और कषाय दोनों को क्षीण करके समाधिमरण करता है, वहीं अन्तकृदशा में सुदर्शन आकस्मिक रूप से मृत्यु का कारण उपस्थित हो जाने पर समाधिमरण का व्रत लेता है। इन दोनों कथानकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि जब व्यक्ति का शरीर इतना क्षीण हो जाए कि संयम - साधना के आवश्यक कार्यों के सम्पादन करने में भी कोई कठिनाई होने लगे, अथवा जब अनायास मृत्यु का प्रसंग उपस्थित हो जाए, तो यह अवसर समाधिमरण के लिए उपयुक्त होता है। 'धर्माऽमृत - सागार के अनुसार बुढ़ापा जब घिरकर आ जाए, मृत्यु निकट दिखाई दे रही हो, कोई ऐसा उपसर्ग आ जाए और व्यक्ति को लगे कि इस उपसर्ग से बच पाना कठिन है, अथवा शरीर में मृत्यु की समीपता के ऐसे कोई चिह्न नजर आने लगे, अर्थात् असाध्य बीमारी आ जाए और निकट भविष्य में मरण का निश्चय होने पर व्यक्ति को समाधिमरण ग्रहण कर लेना चाहिए।' 'श्रावकाचार - संग्रह' के अनुसार, शीघ्रमरण-सूचक शरीर के कुछ विकार या किसी और कारण से शीघ्रमरण की सम्भावना दिखाई देने लगे एवं आयु के नाश की सम्भावना दिखाई देने लगे, तो ऐसे समय में समाधिमरण कर लेना चाहिए । 'समाधिमरणोत्साह दीपक के अनुसार, अचानक आप सोए, रात्रि में आकर सांप काट जाए और इस प्रकार का उपसर्ग आ जाने पर और आपको लगे कि गारुडी के द्वारा मन्त्रोच्चारण करने मैं बच भी सकता हूँ और नहीं भी, उस समय मरण में संदेह उपस्थित होने पर जो विज्ञ समझदार है, उसे इस प्रकार अनशन ग्रहण करना चाहिए कि यदि इस उपसर्ग आदि से मेरे प्राणों का नाश होता है, तो मेरे जीवन पर्यन्त चारों प्रकार के आहार का त्याग है। यदि कदाचित् किसी 1 अन्तकृत्दशा - तृतीय अध्ययन, षष्ठ वर्ग 2 'कालेन वोपसर्गेण निश्चत्यायुः क्षयोन्मुखम् । कृत्वा यथाविधिप्रायं तास्ताः सफलयेत् क्रियाः ।। धर्माऽमृत ( सागार) - 8/9. - Jain Education International 111 पृ. -121-122. 3 श्रावकाचार - संग्रह (भाग - 2)8 / 9, 10 - • अनुवादक, पण्डित हीरालाल सिद्धान्तालंकार- श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर । 4 समाधिमरणोत्साहदीपक - 19-21. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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