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________________ 110 साध्वी डॉ. प्रतिभा 'भगवती-सूत्र' में समाधिमरण के लिए उचित अवसर को समझाने के लिए स्कन्दक मुनि का कथानक प्रस्तुत किया गया है, जिसका वर्णन निम्न प्रकार से है स्कन्दक मुनि विभिन्न प्रकार की आराधना करते हुए एकदम दुर्बल हो गए, मांसरहित हो गए, चलने पर उनके शरीर की हड्डियाँ आपस में टकराने लगी। हड्डियों के आपस में टकराने से खड़खड़ की आवाज होती थी। वे इतने कृशकाय और दुर्बल हो गए कि उनकी समस्त नाड़ियाँ सामने दिखाई पड़ने लगी। चलने-फिरने की उनमें शारीरिक-शक्ति नहीं थी। कुछ समय के अनन्तर एक दिन भगवान् महावीर राजगृह पधारे। प्रभु वीर ने अपनी अमृतमय वाणी बरसाई। जिनवाणी श्रवण कर समस्त भक्तजन अपने-अपने घर को लौट गए, लेकिन स्कन्दक मुनि के अन्तर्मन में इस प्रकार विशुद्ध परिणाम उत्पन्न हुए कि उग्र तप के कारण मेरा देह सूख गया, काया कृश हो गई, मैं शारीरिक-बल से अविकल हो गया, अब तो मैं सिर्फ आत्मबल के आधार पर ही गमनागमन कर पाता हूँ, बोलते हुए और बोलने के बाद भी मुझे भयंकर कष्ट होता है, अतः अभी तक मेरा जो भी शारीरिक-बल, उत्थान-कर्मबल, वीर्य-पुरस्कार पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहाँ हैं, मुझे उनसे आज्ञा ग्रहण करके उनकी उपस्थिति में ही विपुलगिरि पर्वत पर डाभ (एक तरह की घास) का संथारा बिछाकर आत्मा को संलेखना को भावित करते हुए अन्न-जल का त्याग कर पादपोपगमन (समाधिमरण की तीनों कोटियों में से एक) ग्रहण कर मृत्यु की आकांक्षा से विरत होकर मन को स्थिर और शान्त करके मृत्यु के आगमन की प्रतीक्षा करना चाहिए। वृद्धावस्था एवं शरीर के जीर्ण हो जाने के अतिरिक्त आकस्मिक रूप से मृत्यु उपस्थित होने पर भी समाधिमरण किया जाता है। इसी सन्दर्भ में अन्तकृत्दशा में समाधिमरण ग्रहण करने के यथायोग्य अवसर पर प्रकाश डाला गया है। 'अन्तकृत्दशा' के अनुसार सुदर्शन श्रमणोपासक प्रभु महावीर से मिलने के लिए राजमार्ग से जा रहा था। उस सुदर्शन सेठ को मार्ग में आता हुआ देखकर अर्जुन मालाकार, जिसके शरीर में मुद्गरपाणी यक्ष ने प्रवेश कर रखा था और जो उस यक्ष के वशीभूत बना हुआ था, इस कारण अर्जुन माली छ: पुरुष, एक स्त्री की रोज हत्या किया करता था, कपित एवं रुष्ट होकर लोहे का मुदगर उठाकर सुदर्शन सेठ पर प्रहार करने को उद्यत हुआ। उस समय मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आते देखकर सुदर्शन सेठ को अपनी मृत्यु की सम्भावना निकट दिखाई दी, फिर भी उसके मन में किंचित् मात्र भी भय, त्रास अथवा उद्वेग उत्पन्न नहीं हुआ। उस सुदर्शन सेठ का हृदय तनिक भी विचलित न हुआ, अथवा भयाक्रान्त नहीं हुआ। उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया। फिर पूर्व दिशा को सम्मुख करके बैठ गया। इसके बाद वह इस प्रकार बोला- “मैं उन सभी अरिहन्त भगवन्तों को, जिन्होंने अतीत काल में मोक्ष प्राप्त कर लिया है एवं जो धर्ममार्ग की आदि करने वाले हैं, उन्हें वन्दन करता हूँ। मेरे धर्मगुरु तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर को, जो भविष्य में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं, उनको भी वन्दन-नमस्कार करता हूँ। मैंने पूर्व में परमात्मा प्रभु महावीर के चरणों में स्थूल-हिंसा का प्रत्याख्यान किया था, इसी प्रकार- स्थूल-मृषावाद, स्थूल-अदत्तादान का भी त्याग 'भगवती-सूत्र (घासीलालजी म०) - पृ. - 438-442. तए णं से मोग्गरपााणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं अदूरसमंतेणं वीईवयमाणं वीईवथमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तं पलसहस्सणिफण्णं अओमयं मोग्गरं उल्लालेमाणे-उल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। - अंतकृद्दशा (मधुकर मुनि)-तृतीय अध्ययन-षष्ठ वर्ग, पृ. -121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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