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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
आराधना - पताका के प्रथम, द्वितीय, तृतीय द्वारों के आधार पर हम यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि संलेखना जीवन की अंतिम अवस्था में ही की जाती थी, यद्यपि उसकी साधना पूर्व से ही प्रारम्भ कर दी जाती थी ।
बारह वर्ष की उत्कृष्ट संलेखना का निर्देश भी यही बताता है कि जब क्षपक का शरीर वृद्धावस्था से आकान्त हो जाए और मृत्यु सन्निकट ही प्रतीत होने लगे, तो उसे कषायों और शरीर को कृश करते हुए संलेखना ग्रहण कर लेना चाहिए ।
इसके द्वितीय द्वार में यह भी बताया गया है कि संलेखना विधिपूर्वक और क्रमशः ही की जानी चाहिए। केवल विषम परिस्थितियों को छोड़कर एक साथ चारों आहारों का त्याग कर देना उचित नहीं है। आराधनापताका में कहा गया है कि यदि पूर्व अभ्यास एवं साधना के बिना तात्कालिक विशेष परिस्थिति को छोड़कर संलेखना ग्रहण की जाती है, तो क्षपक के शरीर में व्याधि उत्पन्न होने से उसका समाधिभाव टूट जाएगा, अतः शरीर को क्रमशः ही क्षीण करते हुए इस स्थिति में पहुंचाना चाहिए कि अंतिम समय में असमाधि - भाव उत्पन्न न हो। चाहे आराधनापताका में समाधिमरण के उचित काल का कोई निर्देश न हो, किन्तु भगवतीसूत्र, औपपातिकसूत्र, आचारांगसूत्र आदि में स्पष्ट रूप से एवं विस्तारपूर्वक यह उल्लेख मिलता है कि व्यक्ति कब और किन परिस्थितियों में, किस प्रकार से समाधिमरण स्वीकार करे ।
समाधिमरण वस्तुतः मृत्यु को निमंत्रण देना न होकर निकट आती हुई मृत्यु के स्वागत का ही एक अवसर है । चाहे आराधनापताका में समाधिमरण के उचित काल और विशेष परिस्थिति की चर्चा न हो, किन्तु उसके पूर्ववर्ती आगम-ग्रन्थों में, विशेष रूप से आचारांगसूत्र', भगवतीसूत्र, अंतकृ तदशासूत्र', उत्तराध्ययनसूत्र' आदि में उन परिस्थितियों का विस्तृत विवेचन है, जिनमें समाधिमरण स्वीकार किया जा सकता है । अग्रिम पृष्ठों में हम उन्हीं ग्रन्थों के आधार पर समाधिमरण के उचित काल और परिस्थिति की चर्चा करेंगें ।
जैनधर्म समाधिमरण की साधना कठोरतम साधना है। जैन तप-साधना के विविध प्रकारों की पद्धतियों में समाधिमरण का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः समाधिमरण मरण की कला सिखाने वाला है। जैन - आगमों में एवं आगमेत्तर ग्रन्थों में भी समाधिमरण - व्रत ग्रहण करने के योग्य परिस्थितियों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। समाधिमरण को ग्रहण करने के लिए सर्वप्रथम तो व्यक्ति का मनोबल दृढ होना चाहिए। इस व्रत को ग्रहण करना वीरों का काम है । इस व्रत को ग्रहण करने वाला व्यक्ति योग्य परिस्थितियों में ही इसे ग्रहण करता है । समाधिमरण की साधना पर बढ़ने वाले व्यक्ति की मन, वचन, काया की प्रवृत्ति में एकरूपता होकर जब अन्तरात्मा से आवाज आने लगे, जब मन स्वीकार करने लगे कि मृत्यु जीवन के दरवाजे पर उपस्थित होकर दस्तक दे रही है, तब वह अपने मृत्यु- समय को निकटस्थ जानकर समत्व की साधना के लिए समाधिमरण - व्रत ग्रहण करने को उद्यत हो जाए, उपयुक्त समय को जानकर इस व्रत की आराधना में संलग्न हो जाए।
तुं अंगुलि दावे, पिच्छह ता, किं कओ ? न कओ ? ।।
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आचारांगसूत्र, प्रथम श्रुत स्कन्ध, अध्ययन 8
2 भगवतीसूत्र, (घासीलालजी) पृ. 438,442
3 अंतकृतदशासूत्र, वर्ग 8 अध्ययन 1, (काली आर्या)
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उत्तराध्ययनसूत्र 5 / 32
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वही - द्वार द्वितीय
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गाथा - 26.
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