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________________ 108 साध्वी डॉ. प्रतिभा संवेगरंगशाला में यह भी कहा गया है कि जिसमें अनन्त गुणों से अलंकृत अरिहन्त परमात्मा के प्रति पजा और सत्कार के भाव हों. देव. गरु. धर्म के प्रति जिसकी श्रद्धा मजबूत हो, वही व्यक्ति आराधना करने के योग्य होता है। जो व्यक्ति ज्ञानी हो, ज्ञान की ही चर्चा करता रहता हो, जिसके मन में ज्ञानीजनों के प्रति अहोभाव हो, सम्मान-भाव हो, वही व्यक्ति ज्ञान के क्षेत्र में उत्तरोत्तर गति को प्राप्त करता है, वही आराधक बन सकता है, मुनि-जीवन को स्वीकार कर सकता है। __ आराधक होने के लिए जाति, कुल, वर्ण, पद आदि का कोई बन्धन नहीं है। आराधक तो वही बन सकता है, जो जाति, कुल, वर्ण, पद आदि के अहंकार से ऊपर उठ चुका है। समाधिमरण का इच्छक जाति के व्यामोह में नहीं फंसता। जो व्यक्ति मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य से मुक्त हो गया है, वही समाधिमरण को धारण कर सकता है। जो क्षमाशील हो, सब जीवों के प्रति मैत्री-कारुण्य का अमृत बरसाता हो, वही व्यक्ति इस समत्वभाव की साधना में अपने जीवन को लगा सकता है, वही समभाव की साधना कर सकता है। 'भगवती-आराधना' के अनुसार चारों प्रकार के कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को कृश करने वाला व्यक्ति समाधिमरण करने के योग्य है।' समाधिमरण ग्रहण करने के काल का निर्धारण प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका में संलेखना कब ग्रहण की जाना चाहिए, इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया गया है। यद्यपि इस ग्रन्थ में, कौन व्यक्ति संलेखना ग्रहण कर सकता है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है, लेकिन कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि संलेखना कब ग्रहण की जा सकती है, किन्तु इसके प्रथम संलेखना-द्वार में संलेखना के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य- ऐसे तीन प्रकार के विधानों का उल्लेख हआ है। उसमें यह बताया गया है कि उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की है, मध्यम संलेखना बारह मास की और जघन्य संलेखना बारह पक्ष की होती है, साथ ही, उसमें यह भी कहा गया है कि संलेखना कराने वाले निर्यापक-आचार्य की खोज भी बारह वर्ष तक की जा सकती है। इससे यह फलित होता है कि सामान्यतया संलेखना वृद्धावस्था में ही ग्रहण की जा सकती है, क्योंकि आगम-साहित्य में एवं संलेखना-सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में संलेखना ग्रहण करने के लिए वृद्धावस्था को ही उचित काल माना गया है। इस ग्रन्थ के दसरे परीक्षा-द्वार में भी यह उल्लेख है कि गरुक्षपक से पछे- "तम्हारी अंगुली कैसे टूटी ?" इसी द्वार में क्षपक की कृश काया का भी उल्लेख आया है। इससे यह अनुमान लगता है कि शारीरिक शक्ति के क्षीण होने पर ही और मृत्यु की निकटता को जानकर ही संलेखना ग्रहण की जाती है। सामान्य स्वस्थ्य मुनि को संलेखना ग्रहण करने की कोई अनुमति नहीं थी। जब व्यक्ति का शरीर क्षीण हो जाए, तभी वह संलेखना ग्रहण कर सकता है। 'तणुसंलेहा तिविहा उक्कोसा 1 मज्झिमा 2 जहण्णा 3 य। बारस वासा 1 बारस मासा 2 पक्खा वि बारस उ 3 || - आराधनापताका-द्वार-1 गाथा-9. 2 अज्जो । किं संलेहो कओ? उन कओ? त्ति एवमदियम्मि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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