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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
खण्ड-खण्ड कर मार देने की धमकी भी दी, परन्तु उन्होंने अपनी समाधि और समतापूर्वक समाधिमरण ग्रहण कर शरीर से ममत्व का त्याग कर देहत्याग किया।
आराधना का सामान्य अर्थ वीतराग परमात्मा के आदेशों के अनुसार उन परमात्मा के वचनों के प्रति श्रद्धाभाव से बनाए हुए जीवन जीने का प्रयत्न करना है। इस सम्बन्ध में 'संवेगरंगशाला' में भी यह कहा गया है कि जिस व्यक्ति में गुणों एवं गुणीजनों के प्रति आदर का भाव हो, जो विनम्र हो तथा जिसके हृदय में आराधक - जीवों के प्रति वात्सल्य का भाव हो, अहोभाव हो, वह व्यक्ति आराधना करने, अर्थात् जिनधर्म के परिपालन के योग्य है । '
समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधक को अपने मन एवं अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए सदाचार - व्रत का जीवन - पर्यन्त पालन करना चाहिए। समाधिमरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति का मन वासना से निर्लिप्त होना चाहिए, उसके मन मे किसी भी प्रकार का लोभ नहीं होना चाहिए, सांसारिक भोग, आकांक्षा व आसक्ति का पूर्णतः त्याग कर देना चाहिए, साथ ही समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधक को अपने किसी बन्धु बान्धव, परिवार, इष्टमित्र, पुत्र - पत्नी तथा अन्य स्नेहीजनों के सुख-दुःख से पूरी तरह कमलवत् विलग रहने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसे कमल कीचड़ में पैदा होता है, परन्तु उस कीचड़ में लिप्त नहीं होता, वह उस कीचड़ से उपरत, अर्थात् ऊपर उठ जाता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि साधक संसार में रहते हुए भी आसक्ति के बन्धन में बन्धकर न रहे, उनसे विलग हो जाए, कषायों को अल्प करे तथा इसके लिए विविध प्रकार की तपाराधना में संलग्न रहे ।
1 संवेगरंगशाला - गाथा - 810-816.
2 'समाधिमरण, डॉ. रज्जनकुमार - पृ. वही पृ. -135. 'समाधिमरण
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डॉ. रज्जनकुमार भी अपनी पुस्तक में लिखते हैं जो व्यक्ति सांसारिक - आकांक्षाओं से मुक्त हो, इन्द्रिय-विजेता हो, राग-द्वेष से अपनी आत्मा को दूर रखने वाला हो तथा जिसका मन क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से रहित हो, जिसे अपने गृहीत व्रतों के प्रति सजगता व सावधानी हो तथा जो जीवन और मृत्यु- दोनों ही अवस्था में समता - भाव रखता हो, जो साक्षी भाव में जीता हो, जो ज्ञाता, दृष्टा-भाव में रहता हो, वही व्यक्ति समाधिमरण को ग्रहण करने की योग्यता रखता है। समाधिमरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति के मन में प्रतिष्ठार्जित करने की इच्छा, अर्थात् लोकैषणा का भाव नहीं होना चाहिए । बहुधा यह देखने में आता है कि व्यक्ति जीवन भर सांसारिक भोगों एवं वासनाओं, इच्छाओं को पूरा करने में लगा रहता है और जब मृत्युकाल सन्निकट आता है, तो वह यह घोषणा कर देता है कि "मैं समाधिमरण का व्रत अंगीकार कर रहा हूँ" परन्तु इस तरह से समाधिमरण - व्रत ग्रहण करना उचित नहीं है। ऐसे भावावेश में किया गया समाधिमरण वस्तुतः समाधिमरण नहीं है। साधक का मन वासना से शून्य होना चाहिए, भोग की आकांक्षा व आसक्ति का त्यागी होना चाहिए, तभी वह समाधिमरण ग्रहण कर सकता है। 1
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- 134.
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डॉ. रज्जनकुमार - पृ. - 134.
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5 संवेगरंगशाला TTTTT-820-821.
6 वही - गाथा - 810-816.
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भगवती आराधना - गाथा - 208, 264.
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भाव को बनाए रखा
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