SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 से रहित हो, शरीर की शुश्रूषा से रहित हो, मरणभय उपरत और विवेक से युक्त हो, मुक्ति की तीव्र अभिलाषा वाला हो, ऐसा क्षपक मुनि या श्रावक ही समाधिमरण की आराधना के योग्य होता है । ' इस प्रकार, हम देखते हैं कि प्रस्तुत कृति के अनुसार आराधना करने वाले व्यक्ति को सम्यक् श्रद्धा, (२|म्यग्दर्शन), सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से युक्त होना चाहिए, वहो व्यक्ति आराधना के योग्य होता है। आराधना-पताका के अतिरिक्त जैन आगमों में भी समाधिमरण ग्रहण करने वाले की योग्यता पर भी प्रकाश डाला गया है, जो निम्न हैं उत्तराध्यधनसूत्र में समाधिमरण ग्रहण करने वाले की योग्यता पर बल देते हुए लिखा है कि जो संयमशील हो, जिसने पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो, जिसका जीवन चारित्र की सौरभ से महक रहा हो, जो सकाममरण और अकाममरण के स्वरूप का ज्ञाता हो तथा जिसने मृत्यु की अनिवार्यता को जान लिया हो, जो मृत्यु से भयभीत नहीं होता हो, वही व्यक्ति समाधिमरण ग्रहण करने की योग्यता रखता है । मूलाचार' के अनुसार सांसारिक मोहमाया व आकांक्षा से जो रहित हो, जिसने कषायों पर विजय प्राप्त कर ली हो, जिसके जीवन में सम्यग्दर्शन का प्रकाश हो, पाँचों इन्द्रियों को जिसने वश में कर लिया हो, अल्पकषाय वाला एवं संसार के दुःखों को जानकर उन बन्धनों को समझकर उन राग या आसवितजन्य बन्धनों से मुक्त रहने वाला व्यक्ति समाधिमरण को अंगीकार कर सकता है। 'मरणविभक्ति' के अनुसार अपने देह व कषायों को कृश करने वाला व्यक्ति समाधि-भाव ग्रहण करने की योग्यता रखता है, अर्थात् जिस व्यक्ति ने अपनी रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली और जो साधक विविध प्रकार के तप व अनशन की सहायता शरीर को भी कृश कर लेता है और जो सम्पूर्ण राग-द्वेष से विरत हो गया हो, वही व्यक्ति समाधिमरण की उपासना में संलग्न हो जाता है। 1 साध्वी डॉ. प्रतिभा 'उपासकशांग' आगम में समाधिमरण लेने वाले साधकों का वर्णन कथाओं के द्वारा किया गया है। इन कथानकों में मुख्य दस श्रमणोपासक - श्रावकों के जीवन का दिग्दर्शन कराया गया है। इस ग्रन्थ में आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकौलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता, सालिहिपिता आदि के द्वारा समाधिमरण स्वीकार करने का उल्लेख है । ये श्रावक अनेकों उपसर्ग आने पर भी अपनी उस साधना से विचलित नहीं हुए, तिलभर भी टस से मस न हुए, देवताओं ने उनकी परीक्षा ली, आकाश से जमीन पर डाल दिया, प्रियजनों के शरीर के 1 इहलोए परलोए निरासओ चत्तकायपडिकम्मो । मरणभयं अगणितो संभावियआउपज्जतो ।। आराधनापताका- द्वार चतुर्थ- गाथा, 45. 2 तेसिं सोच्चा संपुज्जाणं संजयाण वसीमओ । न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया ।। उत्तराध्ययन- 5 / 29. 3 णिम्मो निरहंकारी णिक्कसाओ जिदिंदिओ धीरो । अणिदाणो दिठिःसंर ण्णो मरंतो आराहओ होइ ।। मूलाचार (पूर्वार्द्ध), गाथा 103 4 एयं सराग संलेण । विहिं जइ जइ जई समायरइ । अज्झप्पसंजुयम गो पावइ केवलं सुद्धिं । । मरणविभक्ति - 187, 189, 199, 176. 5 'उवासगदसाओं के प्रथम अध्ययन के आधार पर. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy