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________________ 114 साध्वी डॉ. प्रतिमा पाटलीपुत्र नगर में ऋषभसेन नामक श्रेष्ठी ने पत्नी को त्यागकर दीक्षा ली। अपनी पुत्री के प्रेम-राग के होने के कारण श्वसुर द्वारा उपसर्ग दिए जाने पर ऋषभसेन ने श्वास रोककर समाधिमरण की साधना की। श्रावस्ती नगर के राजा जयसेन ने बौद्धधर्म त्यागकर जैनधर्म धारण किया था। उससे कुपित होकर अहिमारक नामक बौद्ध ने उसे उस समय मार डाला, जब वह आचार्य यतिवषभ को नमस्कार कर रहा था। तब, आचार्य ने अपना अपवाद दूर करने के लिए शस्त्र से अपना घात करते हुए समाधिमरण की साधना की। पाटलीपुत्र में नन्दराजा का मंत्री शकडाल था। उसने महापद्मसूरि से जिन-दीक्षा ग्रहण की। उसके विरोधी वररुचि ने राजा महापद्म को रुष्ट करके शकडाल को मारने का प्रयत्न किया, तो शकडाल मुनि ने पांच नमस्कार-मन्त्र का ध्यान करते हुए छुरी से अपना पेट फाड़ डाला और स प्रकार समाधिमरण की साधना की । ( अन्यत्र यह कथा भिन्न रूप में भी मिलती है।) क्त समस्त कथाओं में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यहां साधकों ने मृत्यु-वरण के लिए बाह्य-विधियों का भी आश्रय लिया है। उन्हें ऐसा इस कारण करना पड़ा कि व्यक्ति के धर्म से भ्रष्ट हो जाने की अपेक्षा बाह्य-विधियों या साधनों के आधार पर अपने शरीर का त्याग श्रेष्ठ माना गया है। वस्तुतः, व्यक्ति की यह भावना मरण को दूषित नहीं करती है, अपितु इसे पण्डितमरण की कोटि में ले जाती है, अतः यह स्थिति भी समाधिमरण की ही पर्यायवाची. है। इसी तरह 'आराधना सार' में भी कछ अन्य कथानकों के आधार पर उपसर्गादि के कारण समाधिमरण करने वाले व्यक्तियों के उदाहरण मिलते हैं, जो निम्न हैं शिवभूति ने जैनदीक्षा ग्रहण की। ध्यान तथा कठोर साधना करने के लिए वह जंगल (बासों के जंगल) में चला गया। तेज हवा के चलने के फलस्वरूप बांस के पेड़ों के आपस में टकराने से अग्नि पैदा हुई। इस अग्नि के कारण समस्त जंगल में आग लग गई। शिवभूति भी चारों तरफ से अग्नि से घिर गया। इस संकट से बचने का कोई उपाय दिखाई न देने के कारण उसने समाधिमरण किया। इसी प्रकार, श्रीदत्त नामक साधक अपनी कठोर साधना में लीन था। उस समय भयंकर ठण्ड थी। किसी ने द्वेष के वशीभूत होकर उन पर ठण्डा पानी डाल दिया। अत्यधिक ठण्ड के कारण शरीर कांपने लगा, तो श्रीदत्त मुनि को मृत्यु का आभास होने लगा, तब उन्होंने समाधिमरण ग्रहण कर प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। पाडलिपुत्ते धूदाहेदूं मामयकदम्मि उवसग्गे। साधेदि उसभसेणों अठं विक्खाणसं किच्चा ।। - वहीं - 2069 अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण। अटठाहपसमणत्थं सत्थगहणं अकासि गणी | - भगवती-आराधना-2069 ३ सगडालएण वि तधा सत्तग्गहणेण साधिदो अत्थो। वररूइपओगहेदुं रूढे णंदे महापउमे।। - वहीं - 2070 तस्थौ तरोस्तते यस्य ज्वलितो वहिन ततः। निपेतवद्फभिरालातैः प्रत्यंगं स कदर्थितः ।। - आराधनासार - पृ.- 89. शकचरेण व्यंतरदेवेन तेन पूर्ववैमनस्मत्य शीतलवारिणा सिक्तः तथा शीतलवातेन कदर्थितः सहजशुद्ध परमात्मानमाराध्य केवलाख्यं च ज्योतिरूत्पाद्य निर्वाणं प्राप्तवान् श्री दत्तों मुनिः । - वही - पृ. - 109. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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