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________________ 104 साध्वी डॉ. प्रतिभा तो है, किन्तु इसके साथ कषाय-त्याग के रूप में आंतरिक-तप है, क्योंकि समाधिमरण की प्रक्रिया में अनशन के द्वारा जहाँ देह के कृशीकरण की प्रक्रिया अपनाई जाती है, वहीं ध्यान आदि की साधना के द्वारा चतुर्विध-कषायों को क्षीण करने की प्रक्रिया भी अपनाई जाती है। समाधिमरण की प्रक्रिया न केवल शरीर-त्याग की प्रक्रिया है, बल्कि कषाय-त्याग की भी प्रक्रिया है। इसमें आत्मनिरीक्षण एवं चित्त की शुद्धि की ही प्रमुखता है। जैन-परम्परा में समाधिमरण की साधना को मुख्य रूप में देह के प्रति मोह का त्याग एवं देह के प्रति जो आसक्ति है, उससे ऊपर उठने के साथ-ही-साथ आत्मशोधन या आत्मानुभूति की प्राप्ति माना गया है। यह मरणकाल में उपस्थित होने वाली बाधाओं से साधक को दूर रखती है, जिससे कि साधक के मन में आकुलता-व्याकुलता का भाव उत्पन्न नहीं होता। यह चेतना के अन्तर्मुखीकरण की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति में समत्व का भाव जगाती है, जिससे वह जीवन और मृत्यु- दोनों ही परिस्थितियों में 'सम' बना रहता है। वह मृत्यु को भी जीवन की तरह ही एक आवश्यक प्रक्रिया समझता है। यही कारण है कि समाधिकरण को मृत्युबोध के रूप में जाना जाता है। _ जैनधर्म में श्रमण-साधकों एवं गृहस्थ-उपासकों- दोनों के लिए समाधिमरण ग्रहण करने के निर्देश मिलते हैं। जैन-आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने के अनेकों सन्दर्भ हैं। अन्तकृत्दशांग एवं अणुत्तरोपपातिक में ऐसे अनेक श्रमण-साधकों और उपासकदशांग में ऐसे गृहस्थों की जीवन-गाथाएँ मिलती हैं, जिन्होंने जीवन के अन्तिम समय में समाधिमरण ग्रहण किया है।' उत्तराध्ययनसूत्र के पाँचवें अध्याय में समाधिमरण को पण्डितमरण अथवा सकाममरण भी कहा है। पण्डितमरण ज्ञानीजनों का मरण है। ज्ञानी पुरुष मृत्यु उपस्थित होने पर आसक्ति से परे होकर इस पण्डितमरण का वरण करते हैं। वे अनासक्त-निर्लिप्त रहते हैं. अतः देहत्याग में भी अविकल रहते हैं। जो व्यक्ति मृत्यु से भागता है, उससे डरता है, वह सच्चे अर्थ में अनासक्त-जीवन जीने की कला से भी अनभिज्ञ है। अनासक्तभाव से मृत्युवरण करने की कला को समाधिमरण कहा जाता है। आहार, उपधि आदि को व्यक्ति देह की रक्षा के लिए ही धारण करता है, क्योंकि शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाए रखने के लिए आहारा आवश्यक है। सर्दी-गर्मी आदि से शरीर को बचाने के लिए वस्त्र, उपकरण आदि का प्रयोग उपधि कहलाता है, लेकिन यहाँ तो जिस देह के रक्षण के लिए आहार, उपाधि को ग्रहण किया जाता है, उसी को त्यागने की बात कही जा रही है, अत: समाधिमरण की भावना एक बहुत ही उदात्त भावना की परिचायक मानी जा सकती है। तीनों ही योगों से आहार-उपधि और देह के त्याग का भाव होना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति अगर वचन और काय से देहत्याग की बात करता है और मन से नहीं करता है, तो उसका यह देहत्याग समाधिमरण न होकर एक तरह से आत्महत्या ही कहलाएगी, जबकि समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। सामान्य रूप से हर प्राणी इस संसार में राग-द्वेष से ग्रसित रहता है, वह देह के प्रति मोहभाव रखता है। फलतः, वह नाना प्रकार के दुःखों को सहता है, क्योंकि देह के प्रति द्वेषभाव होने से वह समभाव को प्राप्त नहीं कर पाता है। वह अपने प्रियजनों की मृत्यु एवं स्वयं की मृत्यु की सम्भावना से सदैव भयभीत रहता है लेकिन जो ज्ञानी ऐसा नहीं समझते हैं, उनके अनुसार तो मृत्यु जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिंजरे से आत्मा का छुटकारा दिलाती है, अतः यह तो कल्याणकारी मित्र है। ऐसी आकांक्षा-रहित मृत्यु को मृत्यु-महोत्सव (समाधिमरण) कहा गया है। 'नोट - इन तीनों ग्रन्थों में उन्हीं श्रमण एवं गृहस्थ साधकों का उल्लेख है, जिन्होंने समाधिमरण किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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