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________________ 102 साध्वी डॉ. प्रतिभा अध्याय -4 आराधना-पताका में समाधिमरण की अवधारणा एवं प्रक्रिया समाधिमरण-समाधिमरण शब्द समाधि + मरण- इन दो शब्दों से मिलकर बना है। समाधि का अर्थ है- चित्त या मन की शान्त अवस्था और मरण का अर्थ है- देह का त्याग। मन में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, मोह, भय, शोक आदि विकारी-भावों को मन से दूर करके अत्यन्त समताभाव से और सहजता के साथ प्राणों का त्याग करना ही समाधिमरण है। महापुराण में कहा गया है कि"अपने मन के परिणामों एवं चित्त को स्थिर रखना ही समाधि है।" समाधिमरण की साधना में अनुक्रम से कषायों एवं देह को कृश करके देहत्याग किया जाता है। उस अवस्था में व्यक्ति को अपने चित्त को शुभ या शुद्ध परिणामों पर स्थिर रखना ही पड़ता है, अन्यथा मन में विक्षोभ आ सकता है, अथवा मन में राग-द्वेष की भावना उत्पन्न हो सकती है। राग-द्वेष, या कषाय-भाव से युक्त देहत्याग करना समाधिमरण नहीं हो सकता। समाधिमरण का स्वरूप -जीवन क्या है ? इसे कैसे आनन्दमय बनाया जाए, ताकि मनुष्य सुखों के साधनों का सम्यक उपभोग कर सके। इसकी शिक्षा देने वाले अनेक ग्रन्थ आज हमारे समक्ष हैं, विभिन्न प्रकार की तकनीक तथा कई प्रकार की सामग्रियों का आविष्कार भी हो रहा है, फिर भी मनुष्य रात-दिन उलझनों में उलझता ही रहता है कि वह कैसे सुखपूर्वक जीवन बिताए ? इस सन्दर्भ में, वह सभी तरह से परिश्रम करता है, किन्तु वह जीवन के उस अन्तिम चरण से अनभिज्ञ रहता है, जिसका नाम मृत्यु है। मानव ने आनन्दपूर्वक जीवन जीने की कला तो सीख ली, लेकिन आनन्दपूर्वक मरण को स्वीकार करने की कला से वह अपरिचित ही रहा है। बहुत कम लोगों ने इस विषय पर चिन्तन किया है कि जीवन को सुखपूर्वक जीने के बाद प्राणों को सुखपूर्वक कैसे छोड़ा जाए? जिस प्रकार बचपन, जवानी, बुढ़ापा सुखपूर्वक बीता है, वैसे ही मृत्यु भी सुखपूर्वक या आनन्दपूर्वक आनी चाहिए। इस विषय पर व्यक्ति को गहराई से चिन्तन करना चाहिए। जीवन जीने की कला तभी सार्थक होगी, जब मृत्यु की कला भी सीख ली जाए। मनुष्य जीवनभर आनन्द के क्षणों में जीता है, खाने-पीने, भोग-विलास में, राग-रंग, हंसी-खुशी में समय व्यतीत करता है, चिन्ता, शोक, आपत्ति क्या होती है ? इसका नाम भी नहीं जानता, अर्थात् हर दृष्टि से सुख में ही निःमग्न रहता है, किन्तु जब अंत समय आ जाता है, तब व्यक्ति कांपने लगता है, अशान्त हो जाता है और वह अपने मन में सोचता है कि अब मेरा धन, वैभव, मित्र-परिवार सब छूट जाएंगे। इस प्रकार, पीड़ा का भाव उसके मन में आता है और इसी '(अ) यतसम्यक परिणामेसु चितस्याधनमज्जसा - महापुराण-21/226, (ब) उत्तराध्ययनसूत्र -5/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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