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________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन 101 जं विस खंडा खंडी कऊ तुम जण समुहेण।। (भगवती-आराधना, गाथा, 1571) संखिज्जमसंखिज्जं कालं ताइं अवीसमंतेण।। दुक्खाइं सोढाइं किं पुण अइअट्पकालमिणं ? || - (प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका, गाथा, 877) संखिज्जमसंखिज्ज गुणं वा संसारमणु सरित्तूण। दुक्खक्खयं करते जे सम्मत्तेणणणुसरंति।। (भगवती-आराधना, गाथा, 55) हुंकारंजलि- भमुहंगलीहिं दिट्ठीहिं करपायारेहि। सिर चालणेण य तहा सन्नं दाएइ सो खवओ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका, गाथा, 911) हुंकारंजलि-भमुहंगलिहि अच्छीहि वीरमुट्ठीहिं। सिर चालणेण य तहा सण्णं दावेइ सो खवऊ ।। (भगवती-आराधना, गाथा, 1902) रयणसार रयणसार दिगम्बर-परम्परा का एक ग्रन्थ है। परम्परा की दृष्टि से यह ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द का माना जाता है, किन्तु विद्वानों में इस सम्बन्ध में मतभेद हैं। इस ग्रन्थ में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र रूप- त्रिरत्नों का वर्णन है। इसकी भी एक गाथा आराधना-पताका में समान रूप से मिलती है कोहो माणो माया लोहो वि य चउविहं कसायं खु। मणवचिकाएण पुणो जोगो, तिवियप्पमिदि जाणे।। (रयणसार, गाथा, 49.) कोहो माणो माया लोभो, चउरो वि हुँति चउभेया। अण अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका, गाथा, 651) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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