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________________ 88 20- आहारगुत्ते अविभूसियप्पा इत्थिं न निज्झाइ न संथविज्जा । बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुज्जा धम्माणुपेहि सेवए बंभचेरं ।। (प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 749) आहारागुत्ते अविभूसियप्पा इत्थिं न निज्झाय न संथवेज्जा । बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं । । (प्रवचनसारोद्धार, गाथा - 1 / 639) आराधना - पताका की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-ग्रन्थों से गाथागत तुलना (1) मूलाचार दिगम्बर- परम्परा में मुनि के आचार की विवेचना करने वाला यदि कोई प्राचीन ग्रन्थ है, तो वह मूलाचार है। डॉ. सागरमल जैन ने इस ग्रन्थ को दिगम्बर - परम्परा का ग्रन्थ न मानकर अचेलयापनीय - परम्परा का ग्रन्थ माना है। इस ग्रन्थ में श्वेताम्बर - परम्परा के अनेक ग्रन्थों की गाथाएं समान रूप से मिलती हैं। विशेष रूप से आवश्यकनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति तथा आतुर - प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक आदि की अनेक गाथाएं अपने शौरसेनी रूपान्तरण में इस ग्रन्थ में भी पाई जाती है। इस सन्दर्भ में विशेष चर्चा तो डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोधमूलक ग्रन्थ यापनीय-परम्परा में विस्तार से की है। यहाँ हम विस्तार से उस चर्चा में न जाते हुए केवल आराधना-पताका से उसका तुलनात्मक - विवेचन प्रस्तुत करेंगे। विशेष रूप से आराधना - पताका में, आलोचना किस प्रकार से करना चाहिए, इसकी चर्चा करते हुए जो गाथाएं कही गई हैं, वे गाथाएं दो-तीन शब्दों के भेद से मूलाचार में भी यथावत् पाई जाती हैं। इसी प्रकार, प्राचीनाचार्यविरचित आराधना-पताका में ज्ञानातिचार की आलोचना में जो गाथाएं कही गई हैं, वे भी मूलाचार में यथावत् मिलती हैं। इस प्रकार, पंच महाव्रतों के परिग्रहण सम्बन्धी गाथा भी मूलाचार और आराधना-पताका में समान रूप से पाई जाती है। इसी क्रम में, आगे स्वाध्याय के परिणामों की चर्चा करते हुए जो गाथाएं आराधना-पताका में कही गई हैं, वे ही गाथाएं मूलचार में भी यथावत् मिलती हैं। इसी प्रकार, चार कषायों के त्याग के सम्बन्ध में भी प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका और मूलाचार की गाथाएं भी दोनों में समान रूप से मिलती हैं, कुछ शाब्दिक - भिन्नता के साथ यथावत् पाई जाती हैं। तुलनात्मक-अध्ययन के लिए हम दोनों की गाथाओं को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणदि । तह आलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण ।। 1 2 (मूलाचार, गाथा 1/56) जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा माया - मयविप्पमुक्को य ।। साध्वी डॉ. प्रतिभा काले विए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो ।। (मूलाचार, गाथा 1/269) काले विए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे । वंजण अत्थतदुभयं विणओ णाणम्हि अट्ठविहो । । (मूलाचार, गाथा 1 / 367) Jain Education International ( प्राचीनाचार्यविरचित आराधनापताका, गाथा 172 ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003609
Book TitleAradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratibhashreeji, Sagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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