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________________ सम्यग्ज्ञान (ज्ञानयोग) 97 कहा है कि आगम या ग्रन्थ, जो शब्दों के संयोग से निर्मित हुए हैं, वे अपने-आप में न तो सम्यक् हैं और न मिथ्या, उनका सम्यक् या मिथ्या होना तो अध्येता के दृष्टिकोण पर निर्भर है। एक यथार्थ दृष्टिकोण वाले (सम्यक्-दृष्टि) के लिए मिथ्या-श्रुत (जैनेतर आगम ग्रन्थ)भी सम्यक्श्रुत है जबकि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत भी मिथ्याश्रुत है। इस प्रकार, अध्येता के दृष्टिकोण की विशुद्धता को भी ज्ञान के सम्यक् अथवा मिथ्या होने का आधार माना गया है। जैनाचार्यों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण शुद्ध है, सत्यान्वेषी है, तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा; वह भी सम्यक् होगा। इसके विपरीत, जिसका दृष्टिकोण दुराग्रह दुरभिनिवेश से युक्त है, जिसमें यथार्थ लक्ष्योन्मुखता और आध्यात्मिक-जिज्ञासा का अभाव है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान है। ज्ञान के स्तर-'स्व' के यथार्थ स्वरूप को जानना ज्ञान का कार्य है, लेकिन कौनसा ज्ञान स्व याआत्मा को जान सकता है, यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है। भारतीय और पाश्चात्य-चिन्तन में इस पर गहराई से विचार किया गया है। गीता में एक ओर बुद्धि, ज्ञान और असम्मोह के नाम से ज्ञान की तीन कक्षाओं का विवेचन उपलब्ध है," तो दूसरी ओर सात्विक, राजस और तामस-इस प्रकार से ज्ञान के तीन स्तरों का भी निर्देश है। जैनपरम्परा में मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इस प्रकार से ज्ञान के पाँच स्तरों का विवेचन उपलब्ध है। दूसरी ओर, अपेक्षाभेद से लौकिक-प्रत्यक्ष (इन्द्रियप्रत्यक्ष), परोक्ष (बौद्धिकज्ञान और आगम) और अलौकिक प्रत्यक्ष (आत्म-प्रत्यक्ष)-ऐसे तीन स्तर भी माने जा सकते हैं। आचार्य हरिभद्र ने जैन-दृष्टि और गीता का समन्वय करते हुए इन्द्रियजन्य ज्ञान को बुद्धि, आगमज्ञान को ज्ञान और सदनुष्ठान (अप्रमत्तता) को असम्मोह कहा है। इतना ही नहीं, आचार्य ने उनमें बुद्धि (इन्द्रियज्ञान) एवं बौद्धिक -ज्ञान की अपेक्षा ज्ञान (आगम) और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह (अप्रमत्तता) की कक्षा ऊँची मानी है। बौद्धदर्शन में भी इन्द्रियज्ञान, बौद्धिक-ज्ञान और लोकोत्तर-ज्ञान-ऐसे तीन स्तर माने जा सकते हैं। त्रिंशिका में लोकोत्तर-ज्ञान का निर्देश है। पाश्चात्य-दार्शनिक स्पीनोजा ने भी ज्ञान के तीन स्तर माने हैं 2 -1. इन्द्रियजन्य-ज्ञान, 2. तार्किक-ज्ञान और 3. अन्तर्बोधात्मकज्ञान । यही नहीं, स्पीनोजा ने भी इनमें इन्द्रिय-ज्ञान की अपेक्षा तार्किक-ज्ञान को और तार्किक-ज्ञान की अपेक्षा अन्तर्बोधात्मक-ज्ञान को श्रेष्ठ और अधिक प्रामाणिक माना है। उनकी दृष्टि में इन्द्रियजन्य-ज्ञान अपर्याप्त एवं अप्रामाणिक है, जबकि तार्किक एवं अन्तर्बोधात्मक-ज्ञान प्रामाणिक है। इसमें भी पहले की अपेक्षा दूसरा अधिक पूर्ण है। ज्ञान का प्रथम स्तर इन्द्रियजन्य-ज्ञान है। यह पदार्थों को या इन्द्रियों के विषयों को जानता है। ज्ञान के इस स्तर पर न तो 'स्व' या आत्मा का साक्षात्कार सम्भव है और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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