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________________ 96 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अज्ञान को बंधन का और ज्ञान को मुक्ति का कारण कहा गया है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं, अविद्या के कारण ही (लोग) बारम्बार जन्म-मृत्युरूपी संसार में आते हैं, एक गति से दूसरी गति (को प्राप्त होते है)। यह अविद्या महामोह है, जिसके आश्रित हो (लोग) संसार में आते हैं। जो लोग विद्या से युक्त हैं, वे पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।' जिस व्यक्ति में ज्ञान और प्रज्ञा होती है, वही निर्वाण के समीप होता है। बौद्ध-दर्शन के त्रिविध साधना-मार्ग में प्रज्ञा अनिवार्य अंग है। गीता में ज्ञान का स्थान-गीता के आचार-दर्शन में भी ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है। शंकरप्रभृति विचारकों की दृष्टि में तो गीता ज्ञान के द्वारा ही मुक्ति का प्रतिपादन करती है।' आचार्य शंकर की यह धारणा कहाँ तक समुचित है, यह विचारणीय विषय है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि गीता की दृष्टि में ज्ञान मुक्ति का साधन है और अज्ञान विनाश का। गीताकार का कथन है कि अज्ञानी, अश्रद्धालु और संशययुक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होते हैं।०, जबकि ज्ञानरूपी नौका का आश्रय लेकर पापी से पापी व्यक्ति पापरूपी समुद्र से पार हो जाता है। ज्ञान-अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। इस जगत में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कुछ नहीं है। सम्यग्ज्ञान कास्वरूप-ज्ञान मुक्ति का साधन है, लेकिन कौनसा ज्ञान साधन के लिए आवश्यक है ? यह विचारणीय है। आचार्य यशोविजयजी ज्ञानसार में लिखते हैं कि मोक्ष के हेतुभूत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि मोक्ष की साधना में अनुपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है। ऐसे विशालकाय ग्रन्थों का अध्ययन नैतिक-जीवन के लिए अनुपयोगी ही है, जिससे आत्म-विकास सम्भव न हो। जैन-नैतिकता यह बताती है कि जिस ज्ञान से स्वरूप का बोध नहीं होता, वह ज्ञान साधना में उपयोगी नहीं है, अल्पतम सम्यक्ज्ञान भी साधना के लिए श्रेष्ठ है। जैन-साधना में सम्यग्ज्ञान को ही साधनत्रय में स्थान दिया गया है। जैन-चिन्तकों की दृष्टि में ज्ञान दो प्रकार का हो सकता है, एक, सम्यक् और दूसरा, मिथ्या। सामान्य शब्दावली में इन्हें यथार्थज्ञान और अयथार्थज्ञान कह सकते हैं। अतः, यह विचार अपेक्षित है कि कौनसा ज्ञान सम्यक् है और कौनसा ज्ञान मिथ्या है ? सामान्य साधकों के लिए जैनाचार्यों ने ज्ञान की सम्यक्ता और असम्यक्ता का जो आधार प्रस्तुत किया, वह यह है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधरप्रणीत जैनागम यथार्थज्ञान हैं और शेष मिथ्याज्ञान है। यहाँ ज्ञान के सम्यक् या मिथ्या होने की कसौटी आप्तवचन हैं। जैनदृष्टि में आप्त वह है, जो रागद्वेष से रहित वीतराग या अर्हत् है। नन्दीसूत्र में इसी आधार पर सम्यक्-श्रुत और मिथ्या-श्रुत का विवेचन हुआ है, लेकिन जैनागम ही सम्यग्ज्ञान हैं और शेष मिथ्याज्ञान है, यह कसौटी जैनाचार्यों ने मान्य नहीं रखी। उन्होंने स्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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