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________________ 92 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन निष्ठा को स्थिर करता है, तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी याआर्त व्यक्ति की भक्ति ही होती है। श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है। (4) श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है, जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है। यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है। यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्न स्तर की मानी गई है। वस्तुतः, इसे श्रद्धा केवल उपचार से ही कहा जाता है। अपनी मूल भावनाओं में तो यह एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक-प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं होती। नैतिक-दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है। तुलनात्मक-दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि गीता में स्वयं भगवान के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा, वह बन्धनों से छूटकर अन्त में मुझे ही प्राप्त होगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं भगवान्ही वहन करते हैं, जबकि जैन और बौद्ध-दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। गीता में वैयक्तिक-ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है, वह सामान्यतया जैन और बौद्ध-परम्पराओं में अनुपलब्ध ही है। उपसंहार-सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा काजीवन में क्या मूल्य है ? इस पर भी विचार करना अपेक्षित है। यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक-अर्थ में स्वीकार करते हैं, जैसे कि सामान्यतया जैन और बौद्ध-विचारणाओं में स्वीकार किया गया है, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है। वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय-तत्त्व है। हमारे चरित्र या व्यक्तित्व का निर्माण इसी जीवनदृष्टि के आधार पर होता है। गीता में इसी को यह कहकर बताया है कि यह पुरुष श्रद्धामय है और जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह बन जाता है। हम अपने को जो और जैसा बनाना चाहते हैं, वह इसी बात पर निर्भर है कि हम अपनी जीवनदृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें। क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है, वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीने का ढंग होता है, वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है, अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। ___ यदि हम गीता के अनुसार सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा को आस्तिक-बुद्धि के अर्थ में लेते हैं और उसे समर्पण की वृत्ति मानते हैं, तो भी उसका महत्व निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है। जीवन दुःख, पीड़ा और बाधाओं से भरा है। यदि व्यक्ति इसके बीच रहते हुए किसी ऐसे केन्द्र को नहीं खोज निकालता, जो कि उसे इन बाधाओं और पीड़ाओं से उबारे, तो उसका जीवन सुख और शान्तिमय नहीं हो सकता है। जिस प्रकार परिवार में बालक अपने योगक्षेम की सम्पूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता पर छोड़कर चिन्ताओं से मुक्त एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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