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________________ सम्यक्-दर्शन 91 गीतामें श्रद्धाकास्वरूप एवं वर्गीकरण-गीता में सम्यग्दर्शन के स्थान पर श्रद्धा का प्रत्यय ग्राह्य है। जैन-परम्परा में सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक-अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्त्व समाहित है, तो वह तत्त्व-श्रद्धा ही है, लेकिन गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूपसे ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठाही माना गया है, अतः गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैनदर्शन में श्रद्धा का जो अर्थ है, वह गीता में नहीं है। यद्यपि, गीता यह स्वीकार करती है कि नैतिक-जीवन के लिए संशयरहित होना आवश्यक है। श्रद्धारहित यज्ञ, तप, दान आदि सभी नैतिक-कर्म निरर्थक माने गए हैं।" गीता में श्रद्धा तीन प्रकार की वर्णित है-1.सात्विक, 2. राजस और 3. तामस। सात्विकश्रद्धा सत्वगुण से उत्पन्न होकर देवताओं के प्रति होती है। राजस-श्रद्धा यज्ञ और राक्षसों के प्रति होती है, इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। तामस-श्रद्धा भूत-प्रेत आदि के प्रति होती है।50 जैसे जैन-दर्शन में संदेह सम्यग्दर्शन का दोष है, वैसे ही गीता में भी संशयात्मकता दोष है। 51 जिस प्रकार जैन-दर्शन में फलाकांक्षा सम्यग्दर्शन का अतिचार (दोष) मानी गई है, उसी प्रकार गीता में भी फलाकांक्षा को नैतिक-जीवन का दोष माना गया है। गीता के अनुसार, जो फलाकांक्षा से युक्त होकर श्रद्धा रखता है, अथवा भक्ति करता है, वह साधक निम्न कोटि का ही है। फलाकांक्षायुक्त श्रद्धा व्यक्ति को आध्यात्मिक-प्रगति की दृष्टि से आगे नहीं ले जाती। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग विवेकज्ञान से रहित होकर तथा भोगों की प्राप्ति-विषयक कामनाओं से युक्त हो मुझ परमात्मा को छोड़ देवताओं की शरण ग्रहण करते हैं, मैं उन लोगों की श्रद्धा उनमें स्थिर कर देता हूँ और उस श्रद्धा से युक्त होकर वे उन देवताओं की आराधना के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं, लेकिन उन अल्पबुद्धि लोगों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, लेकिन मुझ परमात्मा की भक्ति करने वाला मुझे ही प्राप्त होता है। 52 गीता में श्रद्धा या भक्ति चार प्रकार की कही गई है- (1) ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है, वह एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है। (2) जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना, श्रद्धा या भक्ति का दूसरा रूप है। इसमें श्रद्धा तो होती है, लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती, जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है, संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है। जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है, अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही माना गया है। (3) तीसरे स्तर की श्रद्धाआर्त व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फँसा व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबारने में असमर्थ पाता है और इसी दैन्यभाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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