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भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
स्थिर करना । जैनाचार्यों का कथन है कि व्यक्ति अपने शरीर के चमड़े के जूते बनाकर अपने माता-पिता को पहनाए, अर्थात् उनके प्रति इतना अधिक आत्मोत्सर्ग का भाव रखे, तो भी वह उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। वह माता-पिता के ऋण से उऋण तभी माना जाता है, जब वह उन्हें मार्ग में स्थिर करता है। दूसरे शब्दों में, उनकी साधना में सहयोग देता है, अतः धर्म-मार्ग से च्युत होने वाले व्यक्तियों को धर्म-मार्ग में पुनः स्थिर करना साधक का कर्त्तव्य माना गया है । पतन दो प्रकार का है - 1. दर्शन - विकृति, अर्थात् दृष्टिकोण की विकृति और 2. चारित्र - विकृति, अर्थात् धर्म-मार्ग से च्युत होना । दोनों ही स्थितियों में उसे यथोचित बोध देकर स्थिर करना चाहिए।142
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(7) वात्सल्य - धर्म का आचरण करने वाले समान गुण-शील साथियों के प्रति प्रेमभाव रखना वात्सल्य है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं, स्वधर्मियों एवं गुणियों के प्रति निष्कपट भाव से प्रीति रखना और उनकी यथोचित सेवा-शुश्रूषा करना वात्सल्य है । 43 वात्सल्य में मात्र समर्पण और प्रपत्ति का भाव होता है। वात्सल्य धर्म-शासन के प्रति अनुराग है । वात्सल्य का प्रतीक गाय और गोवत्स (बछड़ा) का प्रेम है। जिस प्रकार गाय बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के बछड़े को संकट में देखकर अपने प्राणों को भी जोखिम में डाल देती है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि साधक का भी यह कर्तव्य है कि वह धार्मिकजनों के सहयोग और सहकार लिए कुछ भी उठा रखे । वात्सल्य संघ-धर्म या सामाजिक भावना का केन्द्रीय तत्त्व है ।
( 8 ) प्रभावना - साधना के क्षेत्र में स्व-पर कल्याण की भावना होती है। जैसे पुष्प अपनी सुवास से स्वयं भी सुवासित होता है और दूसरों को भी सुवासित करता है, वैसे ही साधक सदाचरण और ज्ञान की सौरभ से स्वयं भी सुरभित होता है और जगत् को भी सुरभित करता है । साधना, सदाचरण और ज्ञान की सुरभि द्वारा जगत् के अन्य प्राणियों को धर्म-मार्ग की ओर आकर्षित करना ही प्रभावना है। 44 प्रभावना आठ प्रकार की है - ( 1 ) प्रवचन, (2) धर्म-कथा, (3) वाद, (4) नैमित्तिक, (5) तप, (6) विद्या, (7) प्रसिद्ध व्रत ग्रहण करना और (8) कवित्वशक्ति ।
सम्यग्दर्शन की साधना के छह स्थान - जिस प्रकार बौद्ध-साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख से निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है-इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैन-साधना के अनुसार षट्स्थानकों (छह बातों) की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है - (1) आत्मा है, (2) आत्मा नित्य है, (3) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (4) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (5) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (6) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है।
जैन तत्त्व - विचारणा के अनुसार, इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है । दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार - दोनों ही इन पर निर्भर हैं; ये षट्स्थानक जैन-नैतिकता के केन्द्र-बिन्दु हैं ।
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