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सम्यक्-दर्शन
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की वेशभूषा एवं शरीरादि बाह्य-रूप पर ध्यान न देकर उसके साधनात्मक-गुणों पर विचार करना चाहिए। वेशभूषा एवं शरीर आदि बाह्य-सौन्दर्य पर दृष्टि को केन्द्रित न करके उसे आत्म-सौन्दर्य पर केन्द्रित करना ही सच्ची निर्विचिकित्सा है। आचार्य समन्तभद्र का कथन है, शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी पवित्रता तो सम्यक्-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय के सदाचरणसे ही है, अतएव गुणीजनों के शरीर से घृणा न कर उसके गुणों से प्रेम करना निर्विचिकित्सा है।
4. अमूढदृष्टि-मूढ़ता, अर्थात् अज्ञान। हेय और उपादेय, योग्य और अयोग्य के मध्य निर्णायक-क्षमता का अभाव ही मूढ़ता है। मूढ़ताएँ तीन प्रकार की हैं- 1. देवमूढ़ता, 2. लोकमूढ़ता, 3. समयमूढ़ता।
(अ) देवमूढ़ता-साधना का आदर्श कौन है ? उपास्य बनने की क्षमता किसमें है? ऐसे निर्णायक-ज्ञान का अभाव ही देवमूढ़ता है, इसके कारण साधक गलत आदर्श और उपास्य का चयन कर लेता है। जिसमें उपास्य अथवा साधना का आदर्श बनने की योग्यता नहीं है, उसे उपास्य बना लेना देवमूढ़ता है। काम-क्रोधादिआत्म-विकारों के पूर्ण विजेता, वीतराग एवं अविकल ज्ञान और दर्शन से युक्त परमात्मा को ही अपना उपास्य और आदर्श बनाना ही देव के प्रति अमूढदृष्टि है।
(ब) लोकमूढ़ता-लोक-प्रवाह और रूढ़ियों का अन्धानुकरण ही लोकमूढ़ता है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि नदियों एवं सागर में स्नान करने से आत्मा की शुद्धि मानना, पत्थरों का ढेर कर उससे मुक्ति समझना, अथवा पर्वत से गिरकर याअग्नि में जलकर प्राण-विसर्जन करना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं।
(स) समयमूढ़ता-समयकाअर्थसिद्धान्त याशास्त्र भी है। इस अर्थ में सैद्धान्तिक ज्ञान या शास्त्रीय-ज्ञान का अभाव समय-मूढ़ता है।
5. उपबृंहण-'बृहि' धातु के साथ 'उप' उपसर्ग लगाने से उपबृंहणशब्द निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है-वृद्धि करना, पोषण करना। अपने आध्यात्मिक-गुणों का विकास करना ही उपबृंहण है।" सम्यक् आचरण करने वाले गुणीजनों की प्रशंसा आदि करके उनके सम्यक् आचरण में योग देना उपबृंहण है।
(6) स्थिरीकरण-कभी-कभी ऐसे अवसर उपस्थित हो जाते हैं, जब साधक भौतिक-प्रलोभन एवं साधनासम्बन्धी कठिनाइयों के कारण पथच्युत हो जाता है, अतः ऐसे अवसरों पर स्वयं को पथच्युत होने से बचाना और पथच्युत साधकों को धर्म-मार्ग में स्थिर करना स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधकों को न केवल अपने विकास की चिन्ता करनी होती है, वरन् उनका यह भी कर्तव्य है कि वह ऐसे साधकों को, जोधर्म-मार्ग से विचलित या पतित हो गए हैं, उन्हें धर्म-मार्ग में स्थिर करें। जैन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति या समाज की भौतिक सेवा सच्ची सेवा नहीं है, सच्ची सेवा तो है-उसे धर्म मार्ग में
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