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सम्यक् - दर्शन
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Rs.22
सम्यक्-दर्शन
जैन- परम्परा में सम्यक् - दर्शन, सम्यक्त्व एवं सम्यक् दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुआ है, यद्यपि आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यक् - दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश किया है।' सम्यक्त्व वह है, जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं । सम्यक्त्व का अर्थ-विस्तार सम्यक् - दर्शन से अधिक व्यापक है, फिर भी सामान्यतया सम्यक् - दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किए गए हैं। वैसे, सम्यग्दर्शन शब्द में सम्यक्त्व निहित ही है।
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सम्यक्त्व का अर्थ - सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, जिसे 'उचितता' भी कह सकते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्व-रुचि है । 2 इस अर्थ में सम्यक्त्व सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। उपर्युक्त दोनों अर्थों में सम्यक् - दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। जैन-नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा
यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, लेकिन यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थ से सम्भव होती है | यदि हमारा साध्य 'यथार्थता' की उपलब्धि है, तो उसका साधन भी यथार्थ ही चाहिए | जैन- विचारणा साध्य और साधन की एकरूपता में विश्वास करती है। वह यह मानती है कि अनुचित साधन से प्राप्त किया गया लक्ष्य भी अनुचित ही है। सम्यक् को सम्यक् से
प्राप्त करना होता है, असम्यक् से जो भी मिलता है, या प्राप्त किया जाता है, वह भी असम्यक् ही होता है, अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिन साधनों का विधान किया गया, उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया। वस्तुतः, ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में है और तभी वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते हैं। यदि ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं, तो बन्धन का कारण बनते हैं । बन्धन - मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर नहीं, वरन् उनके सम्यक् और मिथ्यापन पर आधारित है ।
आचार्य जिनभद्र के अनुसार यदि सम्यक्त्व का अर्थ तत्त्वरुचि या सत्याभीप्सा लेते हैं, तो सम्यक्त्व का नैतिक-साधना में महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। नैतिकता की साधना आदर्शोन्मुख गति है, लेकिन जिसके कारण वह गति है, साधना है, वह तो सत्याभीप्सा ही है। साधक में जब तक सत्याभीप्सा या तत्त्व-रुचि जाग्रत नहीं होती, तब तक वह नैतिकप्रगति की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। सत्य की प्यास ही ऐसा तत्त्व है, जो साधक को साधना- -मार्ग में प्रेरित करता है, प्यासा ही पानी की खोज करता है, तत्त्व - रुचि या सत्याभीप्सा से युक्त व्यक्ति ही आदर्श की प्राप्ति के लिए साधना करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यक्त्व के दोनों अर्थों को समन्वित कर दिया गया है। ग्रंथकर्ता की दृष्टि में यद्यपि सम्यक्त्व यथार्थता की
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